‘उनका मौन भी अन्तर्मन की आवाज सुनता था’

'उनका मौन भी अन्तर्मन की आवाज सुनता था'


 जीवन में हो रही उथल-पुथल, वित्तीय समस्यायें और मानसिक तनाव कुछ भी ऐसा नहीं था जिसकी वजह मुझे खुशी दे सके। मन की निराशा का अन्तर्द्वन्द मुझे अवसाद में घेरने लगा था। इसी बीच मेरी मुलाकात अपने चचिया ससुर जी श्री शिवशंकर जी से हुई। जो कि श्री मौनी माँ जी के साथ तीर्थयात्रियां के समूह में रामेश्वरम् के लिये जाने वाले थे। वे जब भी तीर्थयात्रा में मौनी माँ के साथ जाते तो 'दवा' ले जाने की जिम्मेदारी उन्हीं की होती थी। श्री मौनी माँ जी की सेवा में उन्हें एक लम्बा अर्सा हो गया था। मैंने अक्सर उनसे श्री माँ के विषय में बहुत से आध्यात्मिक अनुभव सुने थे पर कभी मुलाकात नहीं हुई थी। 2010 का यह वर्ष शायद मेरे लिये भी आध्यात्मिक आनन्दानुभूति ले कर आया था। मैं अपने पति और बेटी के साथ 'रामेश्वरम्' तीर्थयात्रा के लिये तैयार हो गई। समूह के सभी तीर्थयात्री भक्ति भाव से ओत-प्रोत थे। यात्रा का आनन्द अपनी परम आनन्द की अनुभूति से सराबोर कर रहा था। रामेश्वरम् पहुँच कर जब मैं श्री मौनी माँ के सम्मुख बैठी तो पहली ही दृष्टि में जैसे मेरी नकारात्मक ऊर्जा उनके दिव्य व्यक्तित्व में विलीन हो गई। उनकी मोहक मुस्कान का चुम्बकीय आकर्षक 'औरा' मैं कभी भुला नहीं सकती। जाने क्यों उनके पास बैठ कर मैं हर चिंता से मुक्त बाल सुलभ निश्चिंतता को महसूस कर रही थी। मेरा परिवार बहुत पूजा पाठ, ईश्वरीय अनुभूति एवं आध्यात्मिकता में विश्वास रखता है। सुना था कि आध्यात्मिक विकास हेतु 'गुरू' की आवश्यकता अवश्य होती है।
 मेरा दृढ़ विश्वास था कि मेरे गुरू से मेरी मुलाकात होगी तो इसका अनुभव मुझे स्वयं ही होगा और यह भी चाहती थी कि मेरे पति और मेरे गुरू एक ही हों। पर यह बात मेरे ही अंतस में छुपी थी। कोई भी नहीं जानता था। श्री मौनी मां के समक्ष बैठे-बैठे मुझे तीव्र लालसा हो उठी, बस श्री मौनी माँ ही मेरी गुरू हों, काश वे मुझे अपना शिष्य बना कर अपना लें। मैं जाने किस चुम्बकीय आकर्षण से उनके समक्ष पहुंची और उनके श्री चरणों में शीश नवाने को झुक गई। उन्हें जैसे ही अपना वरदहस्त मेरे सिर पर रखा, मेरे शरीर में शान्ति की असीम परिसीमा झंकृत सी हो उठी। मेरे सिर पर ऐसी ठंडक का अनुभव मुझे हुआ, जैसा न जाने कितने लम्बे समयान्तराल से मैंने कभी महसूस ही नहीं किया था। मेरी आँखे नम हो उठी नन्हीं बालिका की भांति मन हुआ कि उनकी गोद में छुप कर अपने सारे दुःख भुला कर, उनके शान्त अस्तित्व में खो जाऊ।
 अगले दिन भक्त जन इस बात पर अत्यन्त आश्चर्य चकित थे कि श्री मौनी माँ ने मेरे सिर पर हाथ रखा और आशीर्वाद दिया, उन सबका मानना था भक्तजन स्वयं उनके हाथ को अधिकार एवं प्रेमपूर्वक जिद के अपने सिर पर रखने का आग्रह ही करते रहते। मैं अपनी इस अनुभूति पर स्वयं आश्चर्यचकित थी। उसी दिन मैं अपने पति के साथ उनके समक्ष पहुंची। चाहती थी कि वे हमें शिष्य स्वीकार कर लें। आश्चर्य उन्होंने स्वयं ही हमें अपनी शरण में लेकर जैसे कृतार्थ कर दिया। मेरी बेटी जो कि खूब चटपटे, व्यंजन विशेष तौर पर मांसाहार को भी पसंद करती है, उस समय डर रही थी कि कहीं मुझे शिष्ष बना कर यह छोड़ने को कह दिया तोघ् पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। श्री माँ ने स्वयं ही उसे एक मंत्र देकर, उसका निरन्तर अभ्यास करने बात कह कर आशीर्वाद दे दिया। उसकी इच्छा भी पूर्ण हो गई।
 मेरे मन में अति सन्तोष के भाव उभरने लगे। शान्त मन की भावना का यह संगीत यह सुनने को जाने मैं कब से तरस रही थी; यह अचानक जीवन की दिशा स्वयं ही कैसे निर्धारित हो रही थी कि मैं अपने अर्न्तद्वन्द से परे उन्मुक्त प्रसन्नता के गगन में उडान भरने लगी।
 घर पहुंच कर इस बार मुझे सब कुछ बहुत शान्त वातावरण का आभास दे रहा था। मैं प्रसन्नता का अनुभव करने लगी। जितनी भी समस्यायें थी धीरे-धीरे न जाने कैसे स्वतः ही सरल होती हुई आसानी से दूर होती चली गई। इन्हीं सब भावों को अन्तर्मन में संजोये मैं घर की सफाई कर रही थी; अचानक 'भक्ति धाम' की संक्षिप्त जानकारी के पेपर पर मेरी नजर पड़ी। उस पर 'श्री मौनी माई' की तस्वीर छपी थी। मैंने उसे जल्दी से साफ करके उसी वक्त 'मन्दिर' में रख दिया। मन में प्रार्थना के सच्चे भावों को एकाग्र कर माँ से बात करते हुए अपनी स्थिति को व्यक्त करने लगी।
 एक दिन मुझे यूं ही महसूस हुआ कि मन अकारण ही परेशान है, घर भी जैसे नकारात्मक ऊर्जा से भर रहा है।Û
 तभी चमत्कारिक रूप से मैंने महसूस किया कमरे के हर कोने से तीव्र ऊर्जा के रोशन तरंगों की तरह कुछ तेजी से विद्युत गति से बहता हुआ 'श्री मौनी माँ' की तस्वीर की तरफ बढ़ता हुआ उनमें समा गया। मुझे लग रहा था जैसे हर दिशा की नकारात्मक ऊर्जा को श्री माँ ने स्वयं में आत्मसात कर लिया है। शायद कुछ सेकेण्डस के लिये इस 'विद्युत प्रवाह' जैसी तरंगों कर प्रभाव था यह मैं सतर्क होकर कमरे में हर तरफ देखती रही। अब कहीं कुछ नहीं था। एकदम पहले की तरह सामान्य था सब कुछ पर मन में कोई व्यथित विचार नहीं था। मैं बहुत शान्त विचारों से तसल्ली पूर्वक घर के अन्य कार्यां में व्यस्त हो गई। पहले जैसी घबराहट, बेचैनी, भय, शंका जैसी स्थिति  न जाने कहाँ विलीन हो गई।
 ऊर्जा की एक लहर ने मेरे मन को इस तरह छुआ था कि, मेरा जीवन सदा के लिये श्री मौनी माँ के आशीर्वाद से ऊर्जान्वित होकर प्रसन्नता से भर गया।
 मै कहाँ तक कहूँघ् आँखें छलक जाती हैं और गला रुंध जाता है जब श्री माँ के बारे में और उनकी कृपा दृष्टि के चमत्कारों के विषय में कुछ कहने बैठूं! 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' वाली स्थिति है। मैं श्रद्धा से 'श्री मौनी माँ' के चरणों में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए, सदैव यही प्रार्थना करना चाहूँगी कि जो भी निश्छल मन से 'श्री मौनी माँ' को ध्यानपूर्वक मनन करेगा, उसके सभी कष्टों का निवारण अवश्य होगा। केवल श्रद्धा एवं निश्छल विश्वास का होना अति आवश्यक है।
-श्री मती निशा राणा
दिल्ली