हनुमन्त भक्ति

हनुमन्त भक्ति



 मानव जीवन की प्राप्ति बहुत मुश्किल से होती है। प्राणी तमाम जन्मों से गुजरने के बाद मानव जीवन में प्रवेश करता है, अगर इस जीवन में भगवान की कृपा हो जाए, तो यह मानव जीवन सफल हो जाता है। जब भोर का आवागमन होता है, तो एक नई राह मिलती है। जब मां के गर्भ से बच्चा जन्म लेता है, वायु समावेश के साथ ही उसमें ईश्वरीय कणों का प्रवेश हो जाता है। वहीं से उसे ईश्वर अपनी गोद में ले लेता है।
 
 जन्म के पश्चात् ईश्वर का परिचय हमें अपने माता-पिता से मिलता है। जब उनका कोई कार्य पूर्ण होता है, तो कहते हैं कि चलो भगवान की कृपा से सब ठीक हो गया। वहीं से बच्चों का भगवान के प्रति विश्वास पनपता है। जैसे-जैसे जीवन आगे बढ़ता है अच्छाई-बुराई में अन्तर महसूस होने लगता है।


 मेरे पिताजी श्री हनुमान जी के भक्त थे, वे हर मंगलवार को भगवान हनुमान जी का व्रत करते थे। मेरे मन में वहीं से हनुमान जी के प्रति आदर, सम्मान और भक्ति की भावना उत्पन्न हो गयी थी, मुझे लगने लगा था कि जीवन की तमाम परेशानियों का हल करने में भगवान मेरी सहायता करेंगे। अब मैं भी हनुमान जी के बारे में ज्यादा जानने की कोशिश करने लगा तथा तमाम कहानियाँ पढ़ने लगा। बाल जीवन होता ही ऐसा है, जिस चीज पर मन भा जाता है उसे जानने की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है। बाल जीवन एक कल्पनीय जीवन होता है जिसमें भगवान के जैसा कुछ करने का मन करता था।


 समय बीतता चला गया, धीरे-धीरे जीवन ने यौवन की दहलीज पर कदम रखा, हल्की-हल्की दाढ़ी-मूछें फूटनें लगी, जीवन प्रवाह की गति बढ़नें लगी। अब हतज्ञान जीवन को हनुमन्त भक्ति रूपी रसास्वादन की प्राप्ति होने लगी, जीवन की उमगें भी साथ-साथ उछालें मारने लगी थी। मेरे जीवन में हनुमान जी का बड़ा महत्व हो गया था। अब हनुमान जी का साथ, एक सखा की तरह हो गया था, हमेशा भोर पर उनका स्मरण के साथ दिन की शुरूआत करते, पठन-पाठन में लीन हो जाता था। अब हनुमान जी जीवन-शैली में प्रवेश कर गये थे।


 जीवन हमेशा एक जैसा नहीं रहता है, कभी-कभी ऐसे क्षणों कर सामना करना पड़ता है कि खुद उन पलों के बारे में सोचते हुए भी डर लगता है। ये उन दिनों की बात है जब मैंने दसवीं की परीक्षा अपने कॉलेज में टापर के रूप में पास की थी, मेरे पांव जमीन पर नहीं रहते थे, भगवान का व्रत रखकर प्रसाद चढ़ाता था। यह उस दिन की बात है जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ रहा था, साइकिल से घर आ रहा था। सायं लगभग साढ़ें चार बजे की बात होगी, मैं साइकिल तेजी से चला रहा था, साइकिल ढ़ाल में थी, एकाएक बैग साइकिल की हैंडिल पर फिसल गया और ारइकिल का रुख पिण्डर नदी की तरफ हो गया, नीचे इतनी गहरी खाई थी कि ख्याल आते ही रूह काँप जाती है। मैंने जय बजरंग बली कह कर जोर से ब्रेक लगाये, साइकिल रोड पर लटक गयी, आगे का टायर सड़क के बाहर था। यदि एक इंच भी आगे होता तो शायद मैं इस दुनिया से विदा हो गया होता। उस दिन प्रभु की कृपा का अहसास हुआ। मन में श्रद्धा और बढ़ गयी।


 जीवन अग्रसारित होता रहा, तमाम जीवन की प्रक्रियाएँ पूरी होती रही, मन ही मन भगवान पर भरोसा था। अब जीवन में आत्मविश्वास और भी प्रबल हो गया था। जीवन में अच्छी पत्नी, एक पुत्र रत्न एवं एक सुपुत्री का आगमन हो गया था, जीवन का सुखद दौर चल रहा था कभी मन विचलित होता तो मैं नैनीताल स्थित हनुमानगढ़ी पहुँच जाता, वहाँ जाकर दर्शन के पश्चात् फिर मन शांत हो जाता था। परन्तु अचानक, जीवन में संकट का पुनरागमन हो गया, दाहिने हाथ की कोहनी में परेशानी हो गयी।


 2006-07 की बात है, दर्द अपने प्रकाष्ठा पर था, मैं भारतीय आर्युवैदिक संस्थान, नयी दिल्ली में था, पर अकेला। उस दिन मेरे हाथ का आपरेशन था, मुझसे पूछा गया आपके साथ कौन है, मैंने उत्तर दिया कोई नहीं पर मन में सोचा मेरे साथ मेरे बजरंगबली जी तो हैं वे अपने आप सहायता करेंगे। मुझमें न जाने कहाँ से इतनी हिम्मत आयी कि दो घण्टे आपरेशन के बाद दर्द में ही नैनीताल पहुँचा। उस दिन फिर भगवान हनुमान जी के प्रति विश्वास और बढ़ गया। घर में मेरी माँ और मेरी अर्धागिंनी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं अकेला ये सब काम कर आया हूँ।


 मैं अपने जीवन के इन संकट भरे पलों को इसलिए बाँट रहा हूँ ताकि जो व्यक्ति जीवन में सचमुच हनुमान जी को मानता हो, वह सिर्फ उन पर मन से एकचित होकर विश्वास करें। देखें आपका जीवन कितना सफल होता है और जीवन के सारे कष्ट अपने आप दूर होने लगते हैं।


सुरेन्द्र सिंह गुसाईं
उच्च न्यायालय, नैनीताल