अलौकिक शक्तियों के स्वामी : बाबा नीब करौरी महाराज

 


अलौकिक शक्तियों के स्वामी : बाबा नीब करौरी महाराज


धन-धन वृन्दावन रजधानी।
जहाँ विराजत मोहन राजा श्री राधा महारानी।
सदा सनातन एक रस जोरी महिमा निगम ना जानी।
श्री हरि प्रिया हितु निज दासी रहत सदा अगवानी।


विश्व के सभी स्थानों में श्रीधाम वृन्दावन का सर्वोच्च स्थान माना गया है। वृन्दावन का आध्यात्म अर्थ है- ''वृन्दाया तुलस्या वनं वृन्दावनं'' तुलसी का विशेष वन होने के कारण इसे वृन्दावन कहते हैं। 
 वृन्दावन ब्रज का हृदय है जहाँ प्रिया-प्रियतम ने अपनी दिव्य लीलाएं की हैं। इस दिव्य भूमि की महिमा बड़े-बड़े तपस्वी भी नहीं समझ पाते। ब्रह्मा जी का ज्ञान भी यहाँ के प्रेम के आगे फीका पड़ जाता है। वृन्दावन रसिकों की राजधानी है यहाँ के राजा श्यामसुन्दर और महारानी श्री राधिका जी हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि वृन्दावन का कण-कण रसमय है। वृन्दावन श्यामसुन्दर की प्रियतमा श्री राधिका जी का निज धाम है।
 विद्वत्जन श्री धाम वृन्दावन का अर्थ इस प्रकार भी करते हैं ''वृन्दस्य अवनं रक्षणं यत्र तत वृन्दावनं'' जहाँ श्री राधारानी अपने भक्तों की दिन-रात रक्षा करती हैं, उसे वृन्दावन कहते हैं। इस तीनों लोकों से प्यारी वृन्दावन धरा धाम को महाराज जी ने चुना अपनी भौतिक लीला को विराम देने के लिए एवं साकार से निराकार में प्रवेश करने के लिए।
 यहीं पर वह पवित्रतम स्थान है जहाँ महाराज जी ने अपने पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार महासमाधि ली, श्री कृष्ण की पावन लीला स्थली तीनों लोकों से न्यारी मथुरा। वह अपने पूर्वनियोजित कार्यक्रमानुसार आगरा आये ओर वहाँ से अपने छोटे पुत्र धर्म नारायण शर्मा को लेकर वृंदावन आये और तीन बार ''ओम् जय जगदीश हरे'' कहते हुए अपनी भौतिक लीला को विराम दिया।
 महापुरुषों, संतों का इस धरा पर अवतरण सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए होता हैं। उनका अपना कोई प्रयोजन या स्वार्थ नहीं होता। ऐसा ही महाराज जी की जीवनचर्या से परिलक्षित होता था। उन्हें अपने शरीर का कोई भान नहीं रहता था। भक्तों को ही उन्हें उनके दैनिक क्रियाओं भोजन इत्यदि की याद दिलानी पड़ती थी। वे सदैव भक्तों के कल्याण में, उनके सुख-दुःख बाँटने ओर दूर करने में मगन रहते थे। कोई भी व्यक्ति उनके आश्रम से बिना प्रसाद लिए वापस नहीं जा पता था। वे भक्तों की छोटी से छोटी बातों का ध्यान रखते थे। उनके सानिध्य में भक्तों को ऐसा लगता था कि वे एक ऐसे वट वृक्ष या एक ऐसे पर्वत की छाया में बैठे हैं जहाँ जीवन की कोई भी आपदा, विपदा या कोई भी झंझावात कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगा। वे सदैव उनकी छाया में अपने आपको पूर्ण रूप से सुरक्षित और आनंदित महसूस करते। महाराज जी का सानिध्य सदैव उनके भक्तों के मन में उल्लास एवं उमंग भर देता था।
 यद्यपि महाराज जी आज भौतिक रूप से हमारे साथ नहीं हैं परंतु आज भी प्रत्येक पल, प्रत्येक क्षण ऐसा लगता है कि वे हमारे पास हैं। कभी उनकी कोई कमी महसूस नहीं होती। वृंदावन आश्रम में प्रवेश करते ही मन एक अलग तरह के आनंद एवं उत्साह से ओतप्रोत हो जाता है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। महाराज जी की कुटिया में बैठने पर तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे साक्षात हमारे सामने विराजमान हैं। उनके तख्त कम्बल को स्पर्श करने पर लगता है जैसे हम उनके शरीर का ही स्पर्श कर रहे हैं। उस आनंद का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता।
 वे आज भी अपने भक्तों को कष्ट में देख कर उसी प्रकार सहायता एवं मार्ग निर्देशन किया करते हैं जिस प्रकार अपने जीवन काल में किया करते थे।


किही विधि प्रभु मैं तुम्हें मनाऊँ, 
जासों कृपा प्रसाद तब पाऊँ।
 संत-महात्मा प्रत्येक राष्ट्र की धरोहर होते हैं। इन्हीं आध्यात्मिक गुरुओं के कारण भारत आदिकाल से धर्म गुरु के रूप में विश्वगुरु बनकर विख्यात रहा है। वर्तमान युग में भी अनेक संत, ज्ञानी, योगी और प्रवचनकर्ता अपने कार्यों और चमत्कारों से विश्व को चमत्कृत करते रहे हैं परंतु बाबा नीब करौरी महाराज जी  की बात ही अलग है। 
महाराज जी ने किसी प्रकार का बाह्य आडम्बर नहीं अपनाया, जिससे लोग उन्हें साधु बाबा मानकर उनका आदर करते। उनके माथे पर न त्रिपुण्ड लगा होता न गले में जनेऊ या कंठ माला और न देह पर साधुओं के से वस्त्र ही।
 जन समुदाय के बीच में आने पर आरंभ में आप केवल एक धोती से निर्वाह करते रहे, बाद में आपने एक कम्बल और ले लिया। आजकल के लोगों की क्या कहें, साधक स्तर के साधु अपने आपको भगवान समझने लगते हैं पर लोग बाग आपके नंगे पैरों को देख भ्रमित हो जाते। कभी उनके आश्रम में ही कोई नवागन्तुक महाराज जी से ही उन्ही के बारे में पूछने लगता और वह कहते, यहां बाबा-वाबा नहीं है, जाओ हनुमान जी के दर्शन करो। वह किसी को भी प्रभावित करना नहीं चाहते थे। इस कारण आप में किसी प्रकार का बनावटीपन नहीं दिखाई दिया। वे जिससे भी वह मिलते सहज और सरल भाव से।
 महाराज जी का तेजस्वी स्वरूप ईश्वरीय अवतारों में एक अनोखा संयोग बनता है। वे शरीर तो किसी मानव, पशु या अन्य जीव का धारण करते हैं, लेकिन उस शरीर में जो भावना, ऊर्जा, चेतना या आत्मा रहती है, वह पूरी तरह दैवीय रहती है। 
 उनके आगमन और विदा लेने का भी एक विशिष्ट तरीका था। वह अचानक ही मानो प्रकट हो जाते थे और विदा लेकर अचानक चल देते थे और लोगों को पीछे आने को मना करते थे। 
 आप चाहे वाहन से भी पीछा करो तो 100 गज की दूरी से अचानक किसी मोड़ पर विलुप्त हो जाते थे। कहा जाता है कि उन्होंने हनुमान जी की उपासना की थी और अनेक चामत्कारिक सिद्धियां प्राप्त की थीं। वह अलौकिक शक्तियों के स्वामी थे और निश्चित ही महाराज जी ने आकाश तत्त्व को जीत लिया था इसलिए वह पलक झपकते ही कहीं पर भी, किसी भी जगह उपस्थित हो सकते थे। साथ ही वह धरती के किसी भी तत्त्व या प्रभाव के प्रति अनासक्त थे। 
 जैसे स्वच्छन्द वायु किसी भी वस्तु से प्रभावित नहीं होती वैसे ही महाराज जी भी वस्तु या वातावरण से पूर्णतः अप्रभावित रहते थे, किन्तु इस अनासक्त भाव में रहते हुए भी वह दीन-दुखियों के लिए सहयोग करने में पीछे नहीं रहते थे।
 गरीब भक्तों का मान बढ़ा देते थे बाबा। एक समय महाराज जी लखनऊ में अपने एक भक्त के यहां ठहरे थे और वहां भक्तों का जमघट लगा था। घर का सेवक भी एक रुपया टेंट में रखकर उनके दर्शनों के लिए वहां पहुंचा। जब उसने प्रणाम किया तो महाराज जी ने कहा अपनी कमर में खोसकर मेरे लिए रुपया लाया है। उसने हामी भरी। महाराज जी ने कहा तो मुझे देता क्यों नहीं? 
 उसने रुपया निकालकर दिया और महाराज जी ने उसे प्रेमपूर्वक ग्रहण किया और बाद में अपने भक्तों से कहा इसका एक रुपया, आपके बीस हजार से अधिक मूल्यवान है। ऐसे कितनी ही अनगिनत अनुभव हैं भक्तों के जो महाराज जी के संपर्क में आये सिर्फ उनके जीवन काल में ही नहीं वरन उनके भौतिक रूप से अपनी लीला समाप्त करने के पश्चात उनकी वैसी ही लीला आज भी अनवरत जारी है। वृन्दावन धाम में देश विदेश से आने वाले भक्तों के अनुभव सुनकर मन रोमांचित एवं प्रफुल्लित हो उठता है और मन कह उठता है, 
ऐसी है रहनि तुम्हारी, वाणी कहौ रहस्यमय भारी।
नास्तिक हूं आस्तिक ह्वै जावे, जब स्वामी चेटक दिखलावे।
 चमत्कारी बाबाओं के सम्बन्ध में महाराज जी कहा करते थे : ''यह क्या है? सब पाखंड है''। वह ही (ईश्वर)  चमत्कार कर सकता है। सबसे बड़ा चमत्कार तो यह है कि वह मनुष्य का हृदय एवं मन अपनी तरफ मोड़ लेता है। महाराज जी के पास जो कोई भी धैर्य और खुले मन से बिना किसी निश्चित धारणा के आता था वही उनकी झलक पा पाता था। फिर भी यह सब खुद महाराज जी पर ही निर्भर था। किसी को भी दर्शन अधिकार रूप में नहीं बल्कि प्रसाद रूप में ही प्राप्त हो सकता था। कई बार लोग उनके पास श्रृद्धा भाव से न आकर परीक्षा लेने के भाव से आते थे। ऐसे श्रद्धालुओ के सामने महाराज जी अपना व्यवहार जान बूझ कर बदल लेते थे। महाराज जी की कुछ बातें बड़ी अदभुत थी वे कभी कभी गृहस्थ की भांति आचरण करते। वह साधारण लोगों से भी परिवार उनके व्यापार सम्बन्धी सभी विषयों पर बातचीत किया करते थे। वे लोगों की कल्पना के अनुसार आडम्बर से कोसों दूर भगवा वस्त्रों में या जटा जूट धारी नहीं थे अपितु धोती और कम्बल लपेटे रहा करते थे।
भेष वस्त्र है सादा ऐसे जाने नहीं कोउ साधू जैसे।
ऐसी है प्रभु रहनि तुम्हारी वाणी कहो रहस्यमय भारी।।
 परम श्रद्धेय और हम सबके प्यारे गुरु बाबा नीब करोरी जी महाराज, जिनके आध्यात्मिक अस्तित्व में हम इस समय हैं, और जिनकी आध्यात्मिक उपस्थिति हमें आध्यात्मिक साधना के हमारे चुने हुए क्षेत्र में हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए बिना विविध गुणों के आसपास से घेरे हैं! चाहे वह निस्वार्थ सेवा, भक्ति और प्रार्थना, एकाग्रता और ध्यान, जप और कीर्तन के रूप में आंतरिक अनुशासन, या गहन, सूक्ष्म बुद्धि के माध्यम से जांच और जांच के माध्यम से जांच और एक ही शिक्षाओं को सुनकर, उनकी आध्यात्मिक उपस्थिति हमें सभी पक्षों से हमारी उच्चतम आशीष, हमारे सबसे महान, हमारे पृथ्वी के जीवन की सर्वोच्च और सफल पूर्ति के लिए आकर्षित करती है।
 महाराज जी वह शिक्षक हैं जिन्होंने परंपरागत साधनों से कभी शिक्षा नहीं दी। महाराज जी कभी सिर में हाथ मारते थे कभी दाढ़ी खीचते थे, कभी बालों को झटका देते थे, या कभी कभी बहुत अजीब सी बातें कहते थे या पेट भर खाना खाना कर सुला देते थे। महाराज जी अपनी लीला के माध्यम से शिक्षा देते थे। जो कुछ भी हो रहा है वह महाराज जी की ही लीला है, जो कुछ नहीं भी हो रहा है वह भी महाराज जी की लीला है, आप खुश है यह महाराज जी की लीला है, आप स्वस्थ हैं यह महाराज जी की लीला है, आप बीमार हैं यह महाराज जी की लीला है, आप अमीर हैं या आप गरीब हैं यह भी महाराज जी की ही लीला है। यदि आप हृदय से अनुभव करते हैं तो पाएंगे कि प्रत्येक कार्य उनकी लीला के अंतर्गत ही हो रहा है।
 महाराज जी अपने भक्तों के लिए एक परम शिक्षक हैं। हम सबने महाराज जी के साथ इतने वर्षों के दौरान बहुत कुछ सीखा है और हमें विश्वास है जो महाराज जी ने हमें दिखाया है वह विश्वविद्यालय अथवा अन्य किसी माध्यम के द्वारा संभव नहीं है और न ही किसी अन्यंत्र जगह से सीखा जा सकता है। बार-बार महाराज जी ने हमें और अपने बहुत से अन्य भक्तों को बहुत कुछ दिखाया और प्रदर्शित किया है। उन्होंने हमारे भीतर अन्य प्रश्न और कौतूहल पैदा किए हैं। महाराज जी ने लगातार हमें सवालों के जवाबों तक पहुंचाया है। यह सब सही मायने में सभी भक्तों के लिए सच है। प्रत्येक का अपना खुद का मार्ग है और महाराज जी हम सबके परम शिक्षक हैं ।
 महाराजजी जब कभी भी वृन्दावन जाते अपने साथ के लोगों को धर्मशाला में ठहराते या अन्यत्र कही और स्वयं परिक्रमा मार्ग में जहाँ अब गोरे दाऊ का मंदिर है, हांथी वाले बाबा के पास ठहरते थे पहले यहाँ केवल हांथी वाले बाबा की झोपड़ी मात्र थी। उसके पास नीम के पेड़ के नीचे महाराजजी लेटा करते थे। यह भूमि अत्यंत शुष्क और ऊबड़ खाबड रही जिसमें सिर्फ कटीले बेर और करील की झाडियाँ ही थी इसके अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई पडता था। बाबा का यहाँ आकर इस स्थान में लेटकर मनोरा पर्वत नैनीताल की भाँति अपनाना था। बाद में इस निर्जन तिरस्कृत भूमि को मंदिर और आश्रम के निर्माण के लिए चुना। अपने इस चुनाव पर भक्तों का कोई उत्साह न देखकर बाबा स्वयं ही कहने लगे'” आगे चलकर यहाँ नगर बस जाएगा”। यह वृहत भूमि श्री हरकिशन वैद्ध जी की  थी  बाबा ने इसको आश्रम और मंदिर निर्माण के लिए खरीदवाया। आरम्भ में यहाँ भी बाबा जी ने लघु हनुमान जी की स्थापना कराई भीतर आश्रम में दो मंजिला धर्मशाला बनवाई और सामने दो कतारें रहने के लिए कमरों की बनवाईं। 
 बाद में वृन्दावन में परिक्रमा मार्ग में श्री ठाकुर हनुमान जी का मंदिर एवं आश्रम अपना वर्तमान स्वरुप लेने लगा, और वृन्दावन में ही विशाल क्षेत्र में बाबा नीब करौरी आश्रम एवं श्री ठाकुर हनुमान मंदिर तथा श्री वृन्दावनेश्वरी के भी मंदिर बन गए। 
 परिक्रमा मार्ग में स्थित उस ऊबढ़ खाबढ़ जनहीन बीहड़ क्षेत्र को, जहाँ केवल करील गोखुरू की झाडियों और काँटों का साम्राज्य था, तथा जहाँ सूरज ढल जाने के बाद जान-माल की सुरक्षा नहीं रह पाती थी, महाराजजी ने अपनी पद-रज से पवित्र कर सु-भूमि बना डाला। भूमि की स्थिति ऐसी थी कि जब सिद्धि माँ ने इसे प्रथम बार देखा तो सहसा उनके मुख से निकल गया, “यह कहाँ जमीन ले ली महाराज? इस सूनसान बीहड़ में कौन आयेगा हनुमान जी के दर्शन करने ?” तब श्री मुख से यही शब्द निकले थे, “देखना एक दिन यहाँ नगर बस जायेगा।” 
 और मनसा-सिद्ध महाराजजी का उक्त कथन आज इतना सार्थक रूप ले चुका है कि आश्रम क्षेत्र के चारों दिशाओं में मंदिर, आश्रमों, आवासीय भवनों, धर्मशालाओं की बाड़ सी आ गयी है। कंकरीली- पथरीली धूलभरी सड़क भी मंदिर बनाते ही पक्की हो गई थी। स्वयं आश्रम ही इस मिनी-नगर के मध्य में आ चुका है।
 आश्रम के दक्षिण ओर जो हनुमान मंदिर श्री जयपुरिया द्वारा बनाया गया, तथा उसमें जो हनुमान मिर्त स्थापित है, वह अपने में ही वृन्दावन धाम का अनुपम श्रृंगार बन गई है, जिसकी वस्त्रालंकारों से सुसज्जित अनुपम सुंदरता देखते ही बनाती है। यह मूर्ति जब प्रतिष्ठापन हेतु वृन्दावन आश्रम पहुंची तो प्रवंधकों और भक्तों ने इसे खंडित पाया। बहुत उदासी छा गई आश्रम में क्योंकि खंडित मूर्ति का प्रतिष्ठापन तो हो नहीं सकता और कि दूसरी मूर्ति न मालूम कब उपलब्ध होगी। अंतर्यामी-त्रिकालदर्शी बाबा जी सब स्थिति देख रहे थे। तभी तत्काल कानपुर पहुँच कर कुछ परिकरों के साथ रातों रात चलकर वृन्दावन पहुँच गए। अनजान बने बाबा जी ने लोगो से बस्तुस्थिति पूछ-जानकर कहा, “कहाँ खंडित है मिर्त। सब झूठ बोलते हैं। दिखाओ हमें।” और जब क्रेट में मूर्ति को पुनः महाराजजी के सामने खोला गया तो मूर्ति कहीं से भी खंडित नहीं पाई गई केवल महाराजजी के अलौकिक दृष्टिपात से ही पुनः पूर्ण हो गई। अब तो उसके प्रतिष्ठापन के लिए कोई व्यवधान बचा न रहा। आज हजारों भक्तगण तथा वृन्दावन परिक्रमा करते उस मार्ग से गुजरते लोगों को हनुमान जी दर्शन ही नहीं देते उनकी मनोवांछा की भी पूर्ति करते हैं।   
 श्री वृन्दावन धाम में महाराजजी ने केबल हनुमान मंदिर एवं आश्रम की स्थापना करवाई थी और अपने जाने से पूर्व वृन्दावनेश्वरी देवी के प्रतिष्ठापन की व्यवस्था कर दी थी। परन्तु वृन्दावन आश्रम के भीतर पूर्व में कभी भी देवी अनुष्ठान नहीं कराया था। वर्ष 1973 मार्च माह में बाबा जी श्री देवाकामता दीक्षित को साथ ले आश्रम के प्रांगण में घूम रहे थे। बाबा जी कहीं न कहीं आसन ग्रहण करेंगे ही, यही सोच दीक्षित जी अपनी बगल में एक छोटा चटाई (आसन) भी दबाये थे। कुछ देर बाद बाबा महाराज कुछ रुक रुक कर बोलने लगे (मानो अपने से ही)-“कहाँ बैठूँ ''? कहाँ बैठूँ?” और फिर (कुछ जोर से-लालू दादा से)- बोलते क्यों नहीं कहाँ बैठूँ? लल्लू दादा को समझ नहीं आ रही थी यह बात- बरामदा भी  था और घास का मैदान भी था बैठने के लिए। तभी एक स्थान विशेष को देखकर बाबा स्वयं ही बोल उठे “यहाँ बैठता हूँ“। दादा ने वहीं चटाई बिछा दी और बाबा वहीं बैठ गये। कुछ देर बाद बैठ कर चल दिए और फिर वर्ष 1973 की चैत्र की नवरात्रों में महाराजजी ने आश्रम के प्रांगण में उसी स्थान पर ही अलीगढ़ के भक्त विशम्भर जी से नौ दिन का देवी-पूजन एवं हवन यज्ञ करवा डाला!! जब पूर्णाहुति हो गई तब बाबा महाराज ने उस स्थल-विशेष की यह कहकर घेरा बंदी करा दी कि, “यह जगह अब शुद्ध हो गई है। इसे घेर कर सुरक्षित कर दो।” बाबा जी के इस आदेश का अर्थ अथवा स्थल-विशेष की घेराबंदी तब केबल रहस्य मात्र बनकर रह गया थां और जब 11 सितम्बर 1973 को वृन्दावन में भक्तों द्वारा यह निर्णय न लिया जा सका कि महाप्रभु का पार्थिव शारीर अंतिम संस्कार के लिए कहाँ (जन्मस्थान अकबरपुर, हरिद्वार या वृन्दावन में यमुना किनारे) ले जाया जाए तब महाराजजी ने ही वृन्दावन के प्रसिद्द योगी पागल बाबा को प्रेरित कर आश्रम भिजवाया और उनके द्वारा पार्थिव शारीर को आश्रम के प्रांगण में उसी स्थल-विशेष में ही पंचभूतों में विसर्जित कर देने के लिए आग्रहपूर्ण राय दिलावा दी जिसे उपस्थित भक्त समूह ने भी स्वीकार कर लिया महाप्रभु की इच्छा अनुरूप। फिर उसी शुद्ध किये गए स्थल में ही महाराजजी के लीला शरीर को अनंत चतुर्दशी के पावन पर्व में अग्निदेव को समर्पित कर दिया गया तथा ट्रस्टियों द्वारा उसी पवित्र स्थल में जहाँ महाराजजी के लीला शरीर को पंचभूतों में विसर्जित किया गया था, अस्थिकलश की स्थापना कर उसके ऊपर एक समाधि रूप चबूतरा भी बना दिया गया था जहाँ नित्य ही प्रभात एवं सायंकाल में महाप्रभु की पूजा-अर्चना, आरती एवं परिक्रमा होने लगी। इस परम पवित्र परम पुनीत भूमि पर भक्तगण एवं स्थानीय जनता अपनी मनोकामना-पूर्ति के लिए प्रार्थना करने हर वर्ष हजारों की संख्या में आते रहते हैं। 
 कैंचीधाम की ही भाँति महाराजजी ने वृन्दावन ट्रस्ट मण्डल को भी अपने मंदिर के निर्माण एवंम मिर्त स्थापना हेतु प्रेरित किया। यहाँ भी बाबा जी अपनी दिव्य लीलाएं करते रहे और मंदिर निर्माण व मूर्ति स्थापना को अलौकिकता प्रदान करते रहे। ट्रस्ट मण्डल द्वारा जब इस स्थल पर महाप्रभु का मंदिर स्थापना करने की योजना बनीं, कार्यान्वित भी होने लगी, तो लगा महाप्रभु का मंदिर और इसका आकार व विन्यास रुच नहीं रहा है। अस्तु कुछ काल तक कार्य भी रुका रहा। अब तक बनाई गई दीवारों आदि में भी बदलाव किये गए और जब महाराजजी कह रूचि के अनुरूप सभी कुछ होने लगा तो मंदिर भी शीघ्र पूरा हो गया।
 कुछ वर्ष यह मंदिर यूँ ही बिना मूर्ति (विग्रह) के ही रहा। परन्तु वर्ष 1981 की बसंत पंचमी के पावन पर्व में इस मंदिर में बाबा जी की मूर्ति की स्थापना हो गई दादा मुखर्जी एवं सर्वदमन सिंह 'रघुवंशी' द्वारा। यहाँ मूर्ति को देखकर भी कैंचीधाम जैसी प्रारंभिक भावना आने लगी कि महाराजजी की मुखमुद्रा से इसका सामंजस्य नहीं बैठता। पर अपनी मूर्ति स्वयं गढने वाले” बाबा जी का वही चमत्कार यहाँ भी उसी प्रकार स्पष्ट होने लगा!! शीघ्र ही कुछ ही अंतराल के उपरांत में बिना किसी भ्रान्ति स्पष्टरूप से दृष्टिगोचार हुए, मूर्ति के मुख मण्डल में बाबा जी की मुखमुद्रा स्वरुप लेने लगी और अब तो महाराजजी का ही प्रतिरूप हो चली है- प्रसंन्नमुद्रा युक्त।
 वेदपाठियों के विभिन्न मंत्रोच्चारण के मध्य विभिन्न तीर्थों के जल के 1008 घटकों से दूध, दही, घी, मधु, सर्करा आदि से अभिषेक-स्नानोपरांत महाराजजी को गंगा जल के शुध्दोदक से स्नान कराया गया। वस्त्राभूषणों में महाराजजी की अभिरुचि वाला परिधान धोती एवं कम्बल उन्हें पहनाया गया। तरह तरह के सुगन्धित पुष्पों एवं पुष्प मालाओं से उनका अभिनन्दन किया गया। अनेक प्रकार के फल एवं नाना प्रकार के भोग अर्पित किये गए। आश्रम में उपस्थित अनेक भक्तों द्वारा बाबा जी महाराज के जयकारों से आश्रम पुनः पुनः विध्द होता रहा।
 तदुपरांत हजारों की संख्या में देश विदेश से आये भक्तों ने एवं वृन्दावन वासियों ने महाप्रभु का भोग प्रसाद पाया। ब्राह्मणों को साधुओं को जोगियों को दृव्य एवं वस्त्रादि देकर संतुष्ट किया गया। इस महोत्सव के पूर्व रामायण जी का अखंडपाठ, विष्णुयाग, कीर्तन, भजन, हनुमान चालीसा, सुन्दरकाण्ड आदि के पाठों से आश्रम का सम्पूर्ण क्षेत्र एक नैसर्गिक छटा प्राप्त कर चुका था और समस्त भक्त मंडली में इस आल्हाद्पूर्ण वातावरण का उल्लासपूर्ण प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर होता रहा। इस प्रकार उस वर्ष से बसंतोत्सव महाप्रभु के मंदिर के  प्रतिस्थापन दिवस में बदल गया।
 ऐसे कितनी ही अनगिनत अनुभव हैं भक्तों के जो महाराज जी के संपर्क में आये सिर्फ उनके जीवन काल में ही नहीं वरन उनके भौतिक रूप से अपनी लीला समाप्त करने के पश्चात उनकी वैसी ही लीला आज भी अनवरत जारी है। वृन्दावन धाम में देश विदेश से आने वाले भक्तों के अनुभव सुनकर मन रोमांचित एवं प्रफुल्लित हो जाता है।
 यह बात बिल्कुल सत्य है कि सद्भावना एवं समर्पण की दृष्टि से श्री बाबा नीब करौरी आश्रम (महा समाधि स्थल) वृन्दावन आने वाला प्रत्येक भक्त कभी निराश नहीं लौटता। प्रत्येक भक्त को आश्रम के अंदर कोने कोने में दिव्यता एवं महाराज जी की उपस्थिति का आभास स्वयं होता है फिर चाहे समाधि स्थल हो महाराजजी की कुटिया, श्रीराम दरबार, श्री संकट मोचन हनुमान जी या वृन्दावनेश्वर देवी जी का मंदिर हो वह कह उठता है, 
अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में।
है जीत तुम्हारे हाथों में ओर हार तुम्हारे हाथों में।।
जय गुरुदेव। 


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देवेंद्र कुमार शर्मा 
मथुरा