श्वेत फूलों से मेरा आँचल भर दिया 


श्वेत फूलों से मेरा आँचल भर दिया 


       प्रेम और भक्तिभाव से भरी मेरी दृष्टि श्री सिद्धि माँ के श्रीमुख से हटती ही नहीं थी। उनका शांत गरिमामय व्यक्तित्व, वात्सल्य भरी वाणी ही उनके प्रखर यक्तित्व का परिचय था। कैंची धाम परिसर के उस कमरे में देश के विभिन्न क्षेत्रों से भक्तजन श्री माँ के दर्शन एवं आशीर्वाद प्राप्त करने आये थे। सभी का श्री माँ से लगाव ऐसा ही था जैसे स्वयं अपनी माँ के साथ होता है। हर भक्तजन की यही लालसा थी कि वह श्री माँ के सम्मुख बैठकर अधिक समय बिताकर अपनी बात कह सके और माँ के आशीर्वचनों से अधिकाधिक लाभान्वित हो सके। संकोचवश मैं श्री माँ से कोई बात भी नहीं कर सकी। दिव्य मुस्कुराहट के साथ उन्होंने आशीर्वाद दिया और मैं नैनीताल के लिए रवाना हो गई।



       मन में यही बात चल रही थी कि काश मुझे श्री मां के साथ व्यक्तिगत तौर पर बातें करने का सौभाग्य प्राप्त हो पाता? भीड़ से हटकर मैं भी उनके आशीर्वाद से अनुग्रहीत हो पाती? यूँ तो शब्दों में व्यक्त करने जैसी कोई विशेष बात भी नहीं थी, बस एक भावनात्मक अभिलाषा थी कि उनका विशेष आशीर्वाद मैं भी प्राप्त कर सकूं। घर आकर फिर वही अति व्यस्त दिनचर्या। सुबह से शाम तक स्वयं के लिए भी समय न निकाल पाने की मजबूरी में समय व्यतीत होता रहा।
       मां से आशीर्वाद पाने की लालसा अभी भी मन के कोने में यूं ही मचल रही थी। मन की पुकार संभवतः श्री माँ तक पहुंच चुकी थी। दुनियां की भीड़ से अलग हट कर जैसे श्री माँ स्वप्न में मेरे लिए ही प्रयोजन बन कर आईं थी।



       रात्रि को सोने के बाद अर्द्धनिद्रा में मैंने स्वयं को दिव्यप्रकाश की अर्द्धचेतना में माँ के समक्ष महसूस किया। श्री माँ मंदिर के अंदर मूर्ति स्थल पर विराजमान थी। उनके हाथों में एक वृक्ष की श्वेत फूलों भरी शाखा थी। जिसमें खूबसूरत ताजे सफेद फूल खिले थे। उनकी शांत, मोहक मुस्कान, दिव्यात्मक प्रकाश लिये वात्सल्य पूर्ण नेत्र मुझे ही निहार रहे थे। मैं मंदिर के समक्ष नतमस्तक हो गई। प्रेम से बस श्री माँ को निहारती रही। मन में आशा थी कि काश मुझे इन फूलों में से आशीर्वाद स्वरुप कुछ फूल मिल जायें। परन्तु वही संकोच... स्वयं कैसे कहूं। मंदिर के पास दरवाजे पर खड़ी एक भक्त महिला ने श्री मां के इशारे पर एक फूल लाकर मुझे दे दिया। मैं जैसे धन्य हो गई। पर अभी भी श्री माँ के दर्शनों की लालसा पूर्ण नहीं हुई। श्री मां बेहद मोहक मुस्कान के साथ मुझे देखती रही, फिर स्वयं उठकर मेरे समक्ष आईं। उनके हाथ में वहीं सफेद फूलों की शाखा थी। पास आकर अधिकार स्वरुप झिड़क कर बोली। मुस्कुराहट भरी उलाहना में मां जैसा अधिकार था। 'नहीं मानेगी न तू? ला इधर ला अपना आंचल....। मैंने जल्दी से अपनी साड़ी का आंचल मां के समक्ष फैला दिया। श्री मां ने फूलों भरी शाखा को मेरे सिर के ऊपर झरझरा कर इस तरह बिखेर दिया कि मेरा आँचल सफेद फूलों से भर गया। फिर मुस्कुरा कर सिर पर हाथ फेरा और प्रेम पूर्ण आशीर्वाद दिया।
       आंख खुल गई... सुबह के चार बज रहे थे। मन आध्यात्मिक प्रेम पाकर श्री मां के विचारों में इस तरह डूब गया कि लगा मैं प्रसन्नता, तृप्ति और ऊर्जान्वित भक्ति धारा से संचारित हो रही हूँ।
       फिर कुछ समय बाद कैंची धाम जाना हुआ। सौभाग्य से श्री माँ के चरणों में बैठकर मुझे उनसे बात करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनकी ममतामई आंखों में देखा तो पहला सवाल उन्हांने यही किया, 'अब कैसी है तू?'मेरा जवाब भी मुस्कुराहट में दबा था। क्या कहती? वे परम शक्ति स्वरूपा सिद्धि मां बिन कहे ही सब कुछ जान चुकी थी। धन्य हैं वे शक्ति कात्यायनी स्वरुपा श्री सिद्धि मां जो बिन कहे ही हर मन की व्यथा जानकर जीवन को मधुर प्रेम का प्रतीक बना देती हैं।
'या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।' 


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डा0 कुसुम शर्मा


नैनीताल