द्वारिका में भी हनुमानजी ने उजाड़ी थी वाटिका


द्वारिका में भी हनुमानजी ने उजाड़ी थी वाटिका


        हनुमान जी का रामानुराग तो जगजाहिर है लेकिन उनका कृष्णानुराग भी कुछ कम नहीं है। लंका में उन्होंने भगवान राम के साथ मिलकर अगर दुष्ट रावण के वंश का अंत किया था तो धर्म की स्थापना के लिए और अधर्म के विनाश के लिए उन्होंने महाभारत युद्ध में कृष्ण और अर्जुन का साथ दिया। अर्जुन के रथ पर वे स्वयं ध्वज लेकर बैठे थे। महाभारत युद्ध के बाद श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रथ से उतरने को कहा। अर्जुन के बाद भगवान श्रीकृष्ण के रथ से उतरते ही ध्वज सहित हनुमान भी अदृश्य हो गए और अर्जुन का रथ जलकर नष्ट हो गया। अर्जुन के आश्चर्य करने पर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था कि तुम्हारा रथ तो भीष्म, द्रोण, कर्ण और अश्वत्थामा के दिव्य बाणों से पहले ही जलकर राख हो गया था। वह तो अजर अमर हनुमानजी तुम्हारे रथ पर थे, इस नाते तुम्हारा रथ सुरक्षित था। बहुत कम लोग जानते हैं कि हनुमान जी हर साल रामनवमी धूमधाम से अयोध्या में मनाते हैं। सरयू के तट पर वे राम भक्तों को अपने हाथ से भंडारा खिलाते हैं। देवर्षि नारद की शंका का समाधान करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण भी नारद जी के साथ अयोध्या में पंगत में बैठ गए थे। वेश बदलकर हनुमान रामभक्तों को अत्यंत श्रृद्धा से प्रसाद परस रहे थे तभी उनकी दृष्टि एक साधु के चरणों पर पड़ी। उससे उन्होंने उन्हें पहचान लिया और चरणों में गिर गए। कहने लगे-प्रभु आपने हनुमान के पास आने का कष्ट क्यों किया, मैं तो खुद ही द्वारिका आने वाला था। बस आपके आदेश की प्रतीक्षा कर रहा था। देवर्षि नारद ने भगवान से क्षमा मांगी और कहा कि मैं दुखी हूँ कि मैंने आपके भक्त पर शक किया कि वह बदले हुए स्वरूप में आपको पहचान नहीं पाएगा। हनुमान जी तो हनुमान जी हैं। वे प्रभु राम के दर्शन के लिए भोले बाबा का बंदर बन कर आए थे। नारद मोह के वक्त ही जब विष्णु भगवान ने नारद को कपि रूप दिया था और उस कपि रूप पर भगवान की माया विश्वमोहिनी का कोई वश नहीं चला था। उसी दिन भोले बाबा का मन भगवान का बंदर बनने का हो गया था। भोले बाबा खुद तो मदारी बने और खुद ही बंदर। पहुंच गए दशरथ के महल। राम ने भोले बाबा को जाने दिया लेकिन हनुमान को वहीं रोक लिया। हनुमान जी तो आज भी अयोध्या के रक्षक हैं। जब राम वन में भटक रहे थे तभी उन्होंने उन्हें पहचान लिया था। मतलब कृष्णजी अगर अयोध्या आए भी तो अपने परम भक्त हनुमान के लिये।



        हनुमान जी राम भक्त हैं। रामरूप रस लोलुप हैं। उन्हें प्रभु श्रीराम का वही रूप पसंद है। युगों-युगों तक वे भगवान श्रीराम के उसी स्वरूप का चिंतन और स्मरण करते हैं। वे जानते थे कि भगवान श्रीकृष्ण और भगवान राम के कोई भेद नहीं है फिर भी द्वारिकापुरी में जब वे श्रीकृष्ण, बलराम और सत्यभामा से मिले तो उन्होंने उनसे अपने रामावतार वाले स्वरूप में ही दर्शन देने की इच्छा जाहिर की और तीनों ने उनकी इस इच्छा को पूरा भी किया। अपने लोक को प्रयाण करते वक्त भगवान श्रीराम ने हनुमान और जामवंत को धरती पर ही रहने का आदेश दिया था और उनसे कहा था कि द्वापर में जब वे अवतार लेंगे तब उन्हें दर्शन देंगे। जब भगवान श्रीकृष्ण पर स्यमंतक मणि की चोरी का आरोप लगा था तो वे उसे ढूंढ़ते हुए जामवंत की गुफा में पहुंचे थे। उन्होंने उनसे युद्ध भी किया। इस युद्ध के दौरान ही जामवंत को अपना राम रूप दिखाया। जामवंत शरणागत हो गए और उन्होंने स्यमंतक मणि समेत अपनी प्रिय पुत्री जामवंती उन्हें भेंट कर दी। उस समय हनुमान जी को ज्ञात हो गया था प्रभु ने जामवंत जी को दर्शन दे दिए हैं। उस समय हनुमान जी गंधमादन पर्वत पर तपस्या कर रहे थे। त्रेता युग से द्वापर युग के बीच हजारों साल की तपस्या के बाद भी उन्हें श्रीराम के कृष्ण रूप में दर्शन नहीं हुए तो शिव जी विष्णु भगवान को उलाहना दिया कि वे उनके अंश हनुमान को दर्शन कब देंगे। कृष्ण रूप से हनुमान को तृप्ति न हुई तो उन्होंने उनसे अपना राम रूप दिखाने को कहा।  
         बहुत कम लोग जानते हैं कि द्वारिकापुरी में वे भगवान श्रीकृष्ण के आदेश पर गए थे और वहां की वाटिका उन्होंने उसी तरह नष्ट कर दिया था, जैसा कि उन्होंने रावण की वाटिका में किया था। रावण से तो उन्होंने कहा भी था कि फल कहकर पेड़ तोड़ता है, वानर का तो स्वभाव है यह लेकिन यह बात उन्होंने कृष्ण से नहीं की। इस बीच उन्होंने भगवान के वाहन गरुड़ और सुदर्शन चक्र का भी घमंड तोड़ा। गरुड़ को घमंड हो गया था कि उससे अधिक बलवान और गतिमान कोई नहीं है। 
        जब भगवान श्रीकृष्ण को यह पता चला कि कोई वानर द्वारिका की वाटिका को उजाड़ रहा है तो उन्होंने गरुड़ से कहा कि वह सेना के साथ जाकर उस वानर को राज्य से बाहर खदेड़ दें लेकिन गरुड़ ने कहा कि एक वानर को भगाने के लिए में ही काफी हूँ और वे अकेले वाटिका में चले गए। सेना साथ में नहीं ली। वहां उन्होंने हनुमान पर अपना बल प्रयोग किया तो परम कौतुकी हनुमान जी ने उन्हें अपनी पूँछ में लपेट लिया उनका दम घुटने लगा। हनुमान जी ने उनके अनुनय-विनय करने पर उन्हें छोड़ दिया।
        गरुड़ जी मुंह लटकाए श्रीकृष्ण भगवान के पास पहुंचे और कहा कि महाराज वह सामान्य वानर नहीं है। तब  श्रीकृष्ण भगवान ने कहा कि उन्हें मेरा संदेश दो कि उन्हें भगवान राम ने बुलाया है। जब तक गरुड़ वाटिका में पहुंचे, हनुमान जी गंधमादन पर्वत पर पहुंच चुके थे। वहां पहुंचकर गरुड़ ने इन्हें प्रभु का संदेश दिया और यह भी कहा कि वे उनके कंधे पर बैठ जाएं, वे अतिशीघ्र उन्हें प्रभु के पास पहुंच देंगे। हनुमान जी ने कहा कि आप चलिए, मैं आ रहा हूँ और कहना न होगा कि हनुमान जी महाराज उनसे पहले भगवान श्रीकृष्ण के पास पहुंच गए। वहां उन्होंने उनके राम रूप में दर्शन किए। उनके बगल में सत्यभामा को बैठे देखकर उन्होंने कहा कि माता सीता कहाँ है और उनकी जगह आपने किस दासी को बैठा रखा है। सत्यभामा का अहंकार दूर हो गया। दरअसल जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वर्ग से लाकर सत्यभामा को पारिजात वृक्ष दिया था, तब उन्हें अहंकार हो गया था कि भगवान की सबसे प्रिय पत्नी वहीं हैं। श्रीकृष्ण ने हनुमान के जरिए उनका अहंकार तुड़वा दिया था। सुदर्शन चक्र का अहंकार भी हनुमान ने ही तोड़ा था। जिस समय गरुड़ जी हनुमान को बुलाने गए थे उसी समय भगवान ने सुदर्शन चक्र से कहा कि वह दरवाजे पर खड़ा रहे और किसी को अंदर न आने दे। सुदर्शन ने वैसा ही किया लेकिन भगवान राम से एक मिनट का भी विलंब न चाहने वाले हनुमान ने सुदर्शन चक्र को अपने दांतों के नीचे दबा लिया और जब कृष्ण ने पूछा कि उन्हें किसी ने गेट पर रोका नहीं तो उन्होंने सुदर्शन चक्र को अपने दांतों से निकालकर प्रभु के चरणों में रख दिया और कहा कि यह बाधक बन रहा था हमारे आपके मिलन में। इस बीच गरुड़ जी भी आ गए। उन्होंने हनुमान को अपने से पहले पहुंचा देख अपनी उड़ने की गति पर हीनता का भान किया। बलराम को भी हनुमान जी ने गदा युद्ध में परास्त किया लेकिन यह सब उन्होंने निरहंकार भाव से किया। गंधमादन पर्वत पर महाबली भीम का भी अहंकार हनुमान ने तोड़ दिया था। वे हनुमान की पूंछ तक नहीं हिला पाए थे। हनुमान ने भीम को जो युद्ध के तौर  तरीके बताए थे वे महाभारत में भीम के बहुत काम आए। मंगल मूर्ति हनुमान का कृष्ण का साथ यह बताता है कि हनुमान जी ने भक्त और भगवान के फर्क को मिटा दिया है। वह भी बिना किसी अहमन्यता के। 
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सियाराम पांडेय शांत
लखनऊ