समर्पण की साक्षात प्रतिमूर्ति थी भक्ति माँ
पर्वत राज हिमालय की तनहटी में स्थित हमारा 'उत्तराखण्ड' आदि काल से देवभूमि के नाम से जाना जाता है। आध्यात्मिक ऊर्जा से भरपूर यह अंचल साधु, सन्तों, महात्माओं एवं विभूतियों के लिए उनकी प्रिय क्रीडास्थली तथा तपस्थली रहा है।
इसी पवित्र भूमि में दिव्य शक्तियों एवं दैवीपुंज के रुप में 'मां' का अवतरण हुआ, जिन्हें 'मौनी मां' तथा 'भक्ति मां' के नाम से आज सारा संसार जानता हैं वह परमपूज्य श्री नीबकरौली महाराज की शिष्या थी।
सन् 1992 ई. में 25 दिसम्बर को श्री मां ने पिता श्री कुँवर सिंह तथा माता श्रीमती राधिकदिनी के घर में जन्म लिया जो कि अल्मोड़ा के पोखराज नामक जगह में रहा करते थे। बाल्यावस्था से ही उस वाटिका में आध्यात्म एवं विराट चेतना के चिन्ह प्रखर होने लगे, अपने समवयस्कों के साथ खेलते हुए भी वह एकान्तप्रिय एवं शान्तिप्रिय थी, 'बसन्ती' नामक इस बालिका को गृहस्थ धर्म के पालन के लिए विवाहबन्धन स्वीकार करना पड़ा, तब वह बारह-तेरह वर्ष की रही होंगी।
घर-गृहस्थी के कामों में निरन्तर लगे रहने पर भी वह अध्यात्म और भक्ति में खोयी रहती। गृह-कार्यों करते हुए भी वह एकाएक ध्यानस्थ् या समाधिस्थ हो जाती थी। अपनी सभी जिम्मेदारियों को ईश्वर का आदेश मानकर वह भौतिकता एवं आध्यात्मिकता के बीच संतुलन बनाती रही।
सुमधुर कंठ से जब वह तन्मय होकर भजन गाती थी तब उन्हें देश-काल और समय का मान ही नहीं रहता था। सुन्दरकाण्ड़, रामायण, हनुमानचालीसा का पाठ वह नियम पूर्वक किया करती थी।
नैनीतान में स्थित आवास में रहते हुए वह प्रभु की खोज में कभी हनुमानगढ़ी की ओर निकल पड़ती तो कभी पेड़ की छाया में बैठकर उस अनन्त सत्ता से बातें करती। ऐसा करते हुए अनेक शिकायतों, वर्जनाओं तथा काव्यवाणों का भी सामना करना पड़ा, लेकिन प्रभु का प्रसाद मानकर वह जो भी मिला, स्वीकार करती गयी।
सन् 1034-35 में बाबा नीब करोरी महाराज का आगमन नैनीताल क्षेत्र में हुआ। किसी सिद्ध महात्मा के हनुमानगढी़ (मनोरा) में आगमन की खबर मिलते ही 'माँ' का मन उनसे मिलने, उनके दर्शकों के लिए व्याकुल हो उठा। नित्यप्रति वह समय निकाल कर हनुमानगढ़ जाती और झाडू-बहारी कर, साफ सफाई करके सेवा में लग जाती।
उनकी अनन्य निष्ठा-भाव-भक्ति एवं समर्पण को पहचान कर महाराज जी ने उन्हें अपनी शरण में ले लिया। नाम-कीर्तन, अखण्ड-पाठ तथा ईश्वर-भजनों में उनकी तल्लीनता एवं भाव विहवलता को देखते हुए नीब करोरी महाराज उन्हें 'भक्ति' नाम से पुकारने लगे। वह थी भी साक्षात भक्ति का मूर्तिमान स्वरूप।
महाराज जी जहाँ भी होते, वहाँ सत्संग होता, समय निकालकर 'मां' भी उनके पीछे-पीछे कभी भूमियाधार तो कभी कैंची आश्रम चल देती। हालात कितने कठिन और दुरुह थे। पर माँ कहां रूकने वाली थी। कितना भी काम हो, कैसा भी मौसम हो वह प्रभु को पाने की अदम्य लालसा में पैदल ही चल पड़ती। धन्य है मां आप! और धन्य है आप की निश्छल भक्ति।
अपने गुरू महाराज के दर्शन न होने पर वह अन्न-जल तक ग्रहण नहीं करती थी। एक बार मां उनके दर्शनों के लिए जब नैनीताल से पैदल भूमियाधार पहुंची तो पता चला कि महाराज जी हल्द्वानी के लिए निकल गए है। भक्ति माँ का भोला समर्पण, दर्शनों की उत्कृष्ट लालसा तो देखिए, मां भी 'गुरूदर्शन' के लिए पैदल-पैदल उसी मार्ग पर चल पड़ी पर धन्य हैं वह गुरू और धन्य है वह शिष्या। पर मां के विभिन्न और अचेत होने से पूर्व ही गुरु महाराज ने उन्हें अपने दर्शन देकर कृतार्थ कर दिया।
अनेक कठिन-से-कठिन परीक्षाएं लेकर गुरू महाराज अपनी 'भक्ति' शिष्या को और मजबूत और सुदृढ़ बनाने जाते, पैदल चल कर दर्शन को पहुंचती 'माँ' को घंटों कुटिया के बाहर बैठना होता, पर वह आस न छोड़ती। कई बार गुरू महाराज उन्हें उनके कमरे से बाहर न निकलने को कह देते। 'माँ' सहर्ष स्वीकार कर अपने कक्ष में ही साधना रत रहतीं। प्रभु कृपा मानकर सब स्वीकार कर लेती।
पत्थर से हीरा, मिट्टी से सोना बनने की इस अग्नि परीक्षा में श्री मां ने कभी भी हार नहीं मानी डॉट खाकर, क्रोध सहकर वह मान और अपमान के भाव से ऊपर उठती चली गयी। निरन्तर तप का कंचन बनती रही।
'भक्ति मां' को अपने पूज्य गुरू महाराज पर अगाध श्रद्धा थी। अनन्य विश्वास था। वह उनके हर आदेश का हर आज्ञा का सहर्ष पालन करती। उसे प्रभु का प्रसाद मानती कालान्तर में गुरू महाराज की ही आज्ञा से श्री मां ने सदा-सदा के लिए 'मौन व्रत' का कठिन व्रत धारण कर लिया और धीरे-धीरे मौन साधना करते हुए 'मौनी मां' कहलायी।
'श्री माँ' की तपस्या उनके त्याग का हम कहां तक वर्णन करें। कहां दिव्य प्रकाशमान सूर्यदेव और कहां नन्हा सा जुगनू। उनकी लीलाओं का उनकी साधना का कोई पार नहीं है।
इसी क्रम में एक बार श्री महाराज जी ने उन्हें अन्न त्याग करके केवल फलाहार करने का आदेश लिया, फिर क्या था। मां ने अन्न एवं आहार के प्रति निरासक्ति दिखाते हुए पूरे 25 वर्षों तक केवल फलाहार किया या फिर वह निराहार ही रही। ऐसे त्याग एवं समर्पण ने ही उन्हें आध्यात्म के चरम शिखर तक पहुंचा दिया। कभी-कभी शिथिलता की हालत में वह बेहोश-सी, बेसुध सी हो जाती। तब उन्हें अपने आसपास जगमग प्रकाश दिखतां उस दिव्य रोशनी में उन्हें अपने चारों ओर कृष्ण दिखायी देते।
साधना के इस कठिन पथ पर अग्रसर होते हुए श्री मां ने पूर्णागिरि माँ के दर्शनों के समय उस दिव्य चोटी को प्रकाश से जगमगातें देखा था। और वह ज्योतिपुंज देखते ही देखते मां के अन्दर प्रविष्ट हो गया। पूर्णागिरि मां ने अपना तेजोमय पुंज श्री मां के अन्तर्मन में समाहित कर दिया। अपनी शिष्या 'भक्ति माँ' पर प्रसन्न होकर उनके गुरू श्री नीब करोरी महाराज ने एक बार कहा था।
''देखना एक समय ऐसा आएगा, जब घर-घर में इसकी पूजा होगी।''
गुरुदेव का अमोध वचन! आज 'माँ' घर-घर में बसती हैं। सबकी पुकार सुनती है। वह जगन्माता है। जगदम्बा है हम सबकी माँ है।
गुरूमहाराज ने जब उनकी शक्ति एवं सामर्थ्य को पहचान लिया तब उन्होंने उन्हें मां से देश-विदेश में आध्यात्म का प्रकाश फैलाने के लिए मुक्त कर दिया।
आज 'मां' कण-कण में व्याप्त हो कर अपने भक्तजनों पर स्नेह-प्रेम की वर्षा कर रही है। आज माँ विश्व भर में व्याप्त अपनी सन्तानों पर करुणा लुटा रही है। उनका आशीर्वाद, उनकी कृपा, उनकी स्मृति हम सब पर बनी रहे यही प्रार्थना यही कामना है।
'श्री माँ' का स्मरण होते ही मुझे भी वह सुअवसर याद आता है। जब मुझे श्री मां के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सन् अस्सी के दशक में तब अल्मोड़ा के एक भवन में मां विराजी थी। श्वेत वसना, दिव्य रूपा, मधुर स्मित से सुशोभित 'माँ' का आशीर्वाद हमें भी मिला था। श्री मां की वह दिव्य मूर्ति आज भी मेरे मन मे ज्यों की त्यों बनी हुई है।
हम बच्चों पर आपका प्रेम, आपका आशीष सदा-सदा बना रहें मां! यही कामना है।
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
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श्रीमती आशा काण्डपाल, नैनीताल