प्रबंधन के धनी हनुमान जी


प्रबंधन के धनी हनुमान जी


           हनुमान जी बुद्धिमान ही नहीं, परम कूटनीतिज्ञ और प्रबंधन के धनी भी हैं। कब छोटा होना है और कब बड़ा, इसे हनुमान जी से बेहतर कोई नहीं जानता। उन्हें पता है कि लघुता से ही प्रभुता मिलती है। प्रभुता तो प्रभु से ही दूर कर देती है क्योंकि प्रभुता अहंकार को जन्म देती है और प्रभु ने तो अपने श्रीमुख से बहुत स्पष्ट कह रखा है कि जहां मैं तहां मैं नाहीं। हनुमान जी परम भक्त है। भगवान श्रीराम के दासानुदास हैं। जो भक्त होता है और जो दासों का  भी दास होता है, अभिमान उसके पास तो फटकता भी नहीं। हनुमान जी समुद्र लंघन के लिए उछले ही थे कि उनका सामना सर्पों की माता सुरसा से हो गया। उसने उन्हें खाने के लिए आठ योजन का मुंह फैलाया, हनुमान जी की जगह कोई भी होता तो घबरा जाता, अपना संतुलन खो बैठता। मौत सामने हो तो विवेक काम ही कहाँ करता है। हनुमान जी ने बुद्धि से काम लिया, जो जिस भाषा में बात करे, उससे उसी भाषा में बात करनी चाहिए वरना समझने में परेशानी होती है। सुरसा अपना, शरीर और मुख बढ़ाती गई और हनुमान जी उसके आकार का दूना होते गए और जब उसने अपना आकार शत योजन कर लिया तो हनुमान जी ने अपने को अत्यंत छोटा कर लिया। मुख में घुसे और बाहर आ गए। माँ कहकर विदा मांगी। जब कोई किसी को मां कहता है तो वैर भाव की गुंजाइश वैसे ही खत्म हो जाती है। मानसकार ने लिखा है 
जस-जस सुरसा बदन बढ़ावा, तासु दुगुन कपि रूप दिखावा। 
सत योजन तब आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा। 



           उनकी बुद्धिमत्ता, वाग्मिता, शरीर और मन पर नियंत्रण और प्रबंधन देख सुरसा भी चकित हुए बिना नही रही। उन्हें आशीर्वाद देकर सर्पलोक को चली गई। हनुमान जी आगे बढ़े तो एक और परेशानी से उनका साबका पड़ा। सिंहनी नाम की राक्षसी जो अपनी मायावी शक्तियों से आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लिया करती थी। करि माया नभ के खग गहहीं। उसने हनुमानजी को खींचना शुरू कर दिया। कौतुकी से निपटने के लिए  उससे भी बड़ा कौतुक दिखाना पड़ता है। हनुमान जी खिंचते चले गए। समुद्र की गहराइयों में जाकर सिंहिका को मार डाला। अगर वे ऐसा न करते तो भविष्य के लिए परेशानी होती। सिंहिका रावण की लंका के सुरक्षा प्रबंध का अहम अंग थी। उस व्यवस्था को ध्वस्त कर हनुमान जी ने रावण को पहला झटका दिया था। हनुमानजी जानते हैं कि जीवन में चार ही संयम होते है। इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम। रामादल में अर्थ नहीं है और रावण के पास अर्थ की अधिकता है। सो उसे अपने बराबर का करने का विचार उन्होंने लंका प्रवेश से पहले ही कर लिया था। लंका जलाकर तो उन्होंने बस अपनी योजना को मूर्त रूप दिया था। लंका में उनका प्रवेश विचार संयम का प्रतीक है। हनुमान जी पहले विचार करते हैं। मन मह कीन्ह विचार। कोई भी काम करने से पहले ईश्वर का ध्यान करते हैं। हनुमान जी तो भक्त हैं, वे इस नियम का अपवाद कैसे हो सकते हैं। 
प्रविस नगर कीजै सब काज, हृदय राखि कौसलपुर राजा। 
मसक समान रूप कपि धरि, लंकेहु चलेहुँ सुमिरि नरहरि।
           वे लंका में रात के अंधेरे में जाते है। जो अतुलित बलधाम है, वह दिन के उजाले में भी जा सकता था। जो स्वर्ण शैलाभदेह है, वह स्वर्ण नगरी लंका में मच्छर की तरह प्रवेश कर रहा है जो ज्ञानियों में अग्रगण्य है, वह अनदेखी, अनचीन्ही जानकी को लंका में सोई महिलाओं के बीच तलाश रहा है। इसके पीछे तर्क यह है कि शत्रु की ताकत को कभी कम नहीं आंकना चाहिए। रावण का प्रबंध तंत्र भी इतना कमजोर नहीं है कि कोई मच्छर जैसा व्यक्ति लंका में घुस जाए और पकड़ा न जाए। उसने सीसीटीवी कैमरा लगा रखा था। हैं, उसे उस दौर का सीसीटीवी कैमरा कहना ही ज्यादा उचित होगा। उस कैमरे का नाम भी लंका ही था। लंका नाम राक्षसी एका। हनुमान को पकड़ लेती है और कहती है कि मोर अहार जहां  लगि चोरा। हनुमान जी सोचते हैं चोर तो मुझसे पहले ही लंका में आया था माता जानकी को लेकर, उसे तो यह खा न सकी और मुझे खाने की बात कर रही है। मतलब इसकी बात में सच्चाई नही है। जो भी गलत है, उसे दंडित किया जाना चाहिए। नष्ट किया जाना चाहिए। फिर शत्रु की ऐसी आंख जो इतनी बारीकी से देखती हो, उसका नष्ट होना तो बहुत ही जरूरी था।सो हनुमान जी ने उसे वहीं ढेर कर दिया। मुठिका एक ताहि कपि हनी। वे यहीं नही रुके, उन्होंने लंका के हर घर की तलाशी ली। वहां की आन्तरिक व्यवस्था देखी। 
मंदिर मंदिर प्रतिकर सोधा। जह देखे तह अगणित जोधा। 
गए दसानन मंदिर मांहि। 
           मतलब हनुमान जी ने लंका का कोई घर छोड़ नहीं। उसी रात विभीषण के रूप में अपना एक मददगार भी तलाश लिया। दूत को विदेश में कैसे काम करना चाहिए,यह कोई हनुमान जी से बेहतर सीख सकता है। समय प्रबंधन का रहा सवाल तो हनुमान जी ने उसी रात सीता जी का पता लगा लिया। अपने नए-नए बने मित्र विभीषण के जरिए। सीता को कोई कष्ट तो नहीं है, यह विचार कर वे पेड़ पर चढ़कर बैठ गए। रावण की सीता को दी गई धमकी भी सुनी। 
मास दिवस जो कहा न माना। तो मैं मारेसि काढ़ि कृपाना। 
वह सीता के विचार भी जानते हैं। उनकी शालीनता और व्यग्रता की भी अनुभूति करते हैं। 
तृन धरि ओट कहा वैदेही। अधम निलज्ज लाज नहीं तोही। 
           हनुमान जी जानकी जी के सामने प्रकट होते हैं और उनसे  अपना परिचय देते है और उन्हें अपना स्वरूप भी दिखाते हैं और फिर लघु रूप में आ जाते हैं। वे पहले ही सीता माता से अजर, अमर गुणनिधि होने का आशीर्वाद प्राप्त कर लेते हैं। रात में लंका देखी नहीं थी। इस नाते रावण की वाटिका को उजाड़ते हैं। वाटिका के रक्षकों को मारते हैं। यहीं नहीं, रावण के वीर पुत्र अक्षय कुमार की हत्या करते हैं। मेघनाद जो उन्हें पकड़कर रावण के दरबार में ले जाता है तो रावण को गुरु की तरह उपदेश देते है। अक्षय कुमार की हत्या को आत्म रक्षा में उठाया गया कदम बताते हैं। 
जेहि मोंहि मारेसि तेहि मोहिं मारा। ता पर बाँधेसि तनय तुम्हारा।
           रावण उन्हें प्राणदंड देने की सजा सुनाता है तो विभीषण बीच में आ जाते हैं। कहते हैं कि नीति विरोध न मारिय दूता। तब रावण उनकी पूंछ में आग लगाने का आदेश देता है। पूरी लंका में उनकी छित्तर परेड कराई जाती है। इससे पहले कौतुकी हनुमान जी अपनी पूंछ  इतनी बढ़ा देते है कि लंका में घृत, तेल और वस्त्रों की कमी हो जाती है। रहा न नगर वसन घृत तेला। राक्षस उनके अपराधों की घोषणा करते हुए उन्हें नगर में घुमाने लगे राक्षस उन्हें गाली बकते, लात घूसों से मारते। उन पर पत्थर फेंकते लेकिन इस अपमान को उन्होंने प्रभु इच्छा समझते हुए सहज स्वीकार कर लिया। जब उनकी पूंछ में आग लगाई गई तो उन्होंने लंका के सभी घर अस्त्रागार को जला दिया। 
जारा नगर निमिष एक माहीं। एक विभीषण कर घर नाहीं। 
           ऐसी गर्जना की कि गर्भवती निश्चरियों के गर्भ गिर गए। गर्भ स्रवहिं रजनीचर नारी। रावण हर साल इंद्र की अमरावती पूरी में जाता था। वहां वह ऐसी गर्जना करता था कि देव पत्नियों के गर्भ गिर जाया करते थे। यह परिवार नियोजन का अस्थायी प्रबंध था लेकिन हनुमान जी ने ऐसी गर्जना की कि उसका भय हमेशा राक्षसियों के मन-मस्तिष्क में बना रहा। जब कभी वे गर्भवती होतीं, उन्हें लंका जलाते कपि की याद आ जाती और उनका गर्भ गिर जाता। लंका प्रवेश से लंका दहन की यात्रा में हनुमान जी का सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन और विषम हालात में भी धैर्य न खोने और परम साहस से काम करने की उनकी प्रवृत्ति अनुकरणीय भी है और मननीय भी। 


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सियाराम पांडेय शांत


लखनऊ