भक्तों में दिखती है बाबा की झलक


भक्तों में दिखती है बाबा की झलक


         बाबा में भक्तों को अपने इष्ट देव की झलक मिलती है। अनन्त श्री विभूषित बाबा में लोगों को अपने-अपने ईष्ट देव के भी दर्शन होते रहे थे। कोई शिव रूप में उनके दर्शन कर अचेत हो जाता कोई उनमें राम के दर्शन कर पागल हो बैठता, कोई उनमें दुर्गा मां के दर्शन कर विह्वल हो रोने लगता, कोई उनकी विशाल काया को बाल गोपाल के रूप में देख आनन्द विभोर हो जाता और कोई उनको हनुमान के रूप में परिवर्तित होते देख भयभीत हो उठता। किसी को अविश्वास से भ्रमित कर देती और वह उनके विषय में अनुचित धारणा बना लेता। वास्तव में वह जैसे को तैसा दिखाई देते रहे। बाबा अपने को किसी भी रूप में व्यक्त कर सकते थे। इस कारण वह क्या थे, और क्या नहीं, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। अपने शरीर को शांत कर दिखलाना भी, सामान्य दृष्टि से अपने को ओझल करने की उनकी एक विलक्षण लीला ही कही जा सकती है। संक्षेप में उनका जीवन अवतारवाद की सार्थकता को पुष्ट करता है।
         बाबा समानता के हमेशा पक्षधर थे। भारतीय साधु समाज के इतिहास में बाबा अनुपम हैं। वह स्वयं को यथासंभव स्त्रियों से दूर रखते हैं। यह बाबा की ही विशेषता थी कि वह स्त्री वर्ग से घुल-मिलकर रह सके। वह निर्विकार थे। इस कारण वह किसी भी महिला का, चाहे वह भारतीय हो या विदेशी उसका हाथ पकड़ सकते थे और कौतुकवश उसकी नाक पकड़कर हिला भी देते थे। उनके इस कार्य में दर्शकों को किसी प्रकार की अभद्रता नहीं दिखाई देती थी। पुरुष वर्ग तो उनके पैर दबाता ही था, महिलाओं को भी उनके चरण चापने में संकोच नहीं होता था; अपितु उनके दर्शन एवं स्पर्श से सबक भीतर सात्विक भावों और विचारों का संचार होता और सभी अपने का कृतार्थ समझने लगते। वास्तविकता यह थी कि बाबा ने मनुष्य मात्र का अपनी सन्तति के रूप में स्वीकार किया था और तदनुसार ही उनका भाव रहा। वह बहुधा कहते, तुम दो-चार बच्चों से परेशान हो, हमार इतना बच्चे हैं। बाबा का इस प्रकार स्त्री वर्ग से घुल-मिलकर रहने का एक और भी अभिप्राय रहा। वह अपनी कृपा पुरुष वर्ग तक ही सीमित न रखकर, सदा से उपेक्षित स्त्री वर्ग को भी प्रदान करना चाहते थे। स्त्री वर्ग की आध्यात्मिक प्रगति के लिए उन्होंने इन्हें पुरुषों के समान अधिकार दिये थे।



         महाराज जी में अपनत्व का गहरा भाव विद्यमान था। बाबा सभी से इस प्रकार घुले-मिले रहते थे जैसे-माता-पिता अपनी सन्तति के साथ। वह विश्व के बड़े से बड़े व्यक्ति को तू या तुम शब्द से सम्बोधित करते और अपने लिए सदा हम शब्द का प्रयोग करते। उनके तू, तुम और हम शब्द प्रेम में पगे रहते।
         बाबा को दूसरों के विचारों को समझने का अद्वितीय कौशल प्राप्त था। बाबा ने बाल्यकाल में ही घर छोड़ दिया था। इस कारण वह हिन्दी का केवल साधारण बोध भर कर पाए। हिन्दी के अक्षर भी वह भली-भाँति नहीं बना पाते थे। उनकी वाणी का लहजा ब्रज भाषा का था और वह अधिकांश हिन्दी व उर्दू मिश्रित भाषा का प्रयोग करते रहे। बाबा में ऐसी क्षमता रही कि विश्व की किसी भी भाषा में अभिव्यक्त विचारों और भावों को वह जान जाते थे। विदेशियों द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर कभी-कभी आप दुभाषिये के बताने के पूर्व ही दे बैठते और कभी अंग्रेजी के शब्द एवं वाक्य आपके मुँह से सहज रूप में निकल पड़ते। आप आदेश या सम्मति थोड़े, पर सरल और स्पष्ट शब्दों में दिया करते, पर उनका आशय सदा गूढ़ हुआ करता था। यहां तक कि उनके मुँह से निकले 'आ' या 'जा' शब्द भी विशेष अर्थ रखते थे।
         यद्यपि बाबा वैष्णव मत में दीक्षित थे तथापि साधना की कोई स्पष्ट पद्धति आपमें नहीं दिखाई दी। आपको नियम, आसन, प्राणायाम, तीर्थ-स्थान, मन्दिर-दर्शन, जप, यज्ञ, अनुष्ठान आदि की आवश्यकता न थी। बातें करते हुए भी आपके दाहिने हाथ का अँगूठा चारों उगंलियों में दौड़ लगाता रहता और कभी ऐसी स्थिति हो जाती थी कि आपको अपना भान भी नहीं रहता। बाबा कहते राम नहीं रहे, कृष्ण नहीं रहे, पर नाम बना रहा। नाम लेने से सब काम पूरे हो जाते हैं और अपनी गर्दन हिलाते हुए दोहराते सब काम पूरे हो जाते हैं।
         बाबा केवल भगवान को ही कर्ता मानते थे और मनुष्य से क्या मांगना, वह दे क्या सकता है? सन्त और भगवान सर्व समर्थ हैं, परन्तु उनसे मांगना नहीं पड़ता। वह सर्वत्र हैं, जो उचित है उसे स्वतः देते हैं। इस प्रकार भगवत इच्छा को वह सर्वोपरि बताते और शरणागति बल देते, जिससे लोगों में भगवत प्रेम और विश्वास हो और वे अकारण चिन्ताओं से मुक्त हों। वह कहते थे, ईश्वर के भरोसे सब कार्यसहज रूप से हो जाते हैं। ईश्वर की कृपा से ही मनुष्य सफल होता है। कठिन परिश्रम ही यथेष्ट नहीं होता।
         ध्यान को बाबा अवश्य महत्त्वपूर्ण बताते थे, पर जब कोई व्यक्ति उनके पास बैठकर ध्यान लगाता तो वह तुरन्त उसके ध्यान को तोड़ देते थे। असल में वह प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता को जानते थे और अपनी ध्यान की उच्च एवं प्रभावपूर्ण स्थिति को भी। एक बार इसी सन्दर्भ में बोले, मस्तिष्क की सीमा होती है। तुम शरीरस्थ हो। ये चीजें धीरे-धीरे प्राप्त करने की हैं, ऐसा न करने में पागल भी हो सकते हों। यह सत्य हैकि एकाग्र मन ही अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है और यही आत्मदर्शन हैं, पर ईश्वर स्मरण और प्राणियों की सेवा करने वाले को ध्यान और पूजा की आवश्यकता नहीं है। यह सरलतम साधन है। बाबा कष्ट-प्रद साधना को महत्त्व न देकर हृदय की शुद्धता पर जोर देते थे।
         सहज भाव से उत्तर देकर बाबा भक्त को निरुत्तर कर देते थे। प्रश्नों का उत्तर देना बाबा को प्रिय था। वह लोगों की समस्याओं को हल करने में बहुत आनन्द लेते थे और दिन-रात लोगों के प्रश्नों का उत्तर हँसते-मुस्कुराते देते रहते। राजनैतिक, सामाजिक, वैयक्तिक, दार्शनिक योग, भक्ति, नीति, आचार आदि सभी विषयों से सम्बन्धित प्रश्न हुआ करते। वह जटिल से जटिल प्रश्नों का उत्तर थोड़े शब्दों में देत, जिनकी सरलता और स्पष्टता देखते ही बनती थी। किसी भी प्रश्न के उत्तर में वह सोचते-विचारते नहीं देखे गये। वह सदा प्रश्न करते ही उत्तर दे बैठते। कभी-कभी ऐसा भी देखने में आता कि पूछने वाला अपनी बात पूरी तौर से कह भी न नहीं पाया और बाबा ने छोटा और सही उत्तर दे भी डाला। कभी पूछने वाले के मन में एक के बाद दूसरे प्रश्न उठते चले जाते तो वह सभी प्रश्नों का उत्तर उसके पूछने के पहले ही दे जाते।
         बाबा अपने कार्यों का श्रेय ऐसे ही लोगों को दिलाते और अपने में विपरीत गुणों का खुलकर प्रदर्शन करते थे। जिससे लोगों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट न हो। एक भक्त की शंका के उत्तर में उन्होंने एक बार कहा था 'अगर आदमी हमें जान जाएगा तो दुनिया हमारे रोम-रोम को नोंच कर ताबीज बनाने में लग जायेगी।
         बाबा कब क्या करेंगे, इसका कोई अंदाजा नहीं लगा सकता था। कहीं वह साथ के लोगों को छोड़कर अकेले चल देते और कहीं जहाँ उनकी आशा भी नहीं की जाती, आकर भक्तों को दर्शन दे कृतार्थ कर जाते थे। वह कभी कहते भी थे। 



दुनिया में हैं, दुनिया का तलबदार नहीं।
बाजार से गुजरा हूँ, पर खरीददार नहीं।


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गुरुदत्त शर्मा
कानपुर 
-साभारः स्मृति सुधा