आध्यात्म के पुरोधा थे बाबा नीब करोरी महराज


आध्यात्म के पुरोधा थे बाबा नीब करोरी महराज


           आदर्श सन्त पू. नीबकरौरी बाबा महाराज इस युग के अध्यात्म पुरुषों में अग्रगण्य थे। उनमें परोपकार, दया, त्याग, करुणा, सहिष्णुता आदि ऐसे गुण थे, जिनके कारण उनकी स्मृति आज विश्वव्यापी बन गयी है। महाराज जी में किशोरावस्था से ही संसार के प्रति उदासीनता अनासक्ति का भाव उदित होने लगा था। किशोरावस्था में ही उनकी प्रभु से ऐसी डोर लगी कि उसमें बँधकर तो इतने तन्मय हो गये कि घर-द्वार भी छोड़ दिया और श्री हनुमान जी की कठोर तपस्या प्रारम्भ कर दी। उनकी प्रारम्भिक साधना का स्थल आज तक अज्ञात-सा ही है। गुजरात में प्रथम साधना के बाद उन्होंने नीबकरौरी गाँव (जिला फर्रुखाबाद) को अपनी साधना-स्थली बनाया। नीबकरौरी गाँव में उन्होंने धरती के अन्दर गुफा-भवन बनाया और यहाँ श्री हनुमान जी का स्वरूप पावन गंगा की मृत्तिका से निर्मित कर, वर्षों तक साधनालीन रहे। श्री हनुमान जी की कृपा और महाराज जी की साधना में बहुत दिनों तक झगड़ा होता रहा और अन्त में विजय साधना की हुई, भक्ति की हुई या कहें अपारदृअगाध प्रेम की हुई। यह जगत प्रसिद्ध है कि महाराज जी का श्री हनुमान जी के प्रति जो साधना का भाव था, वह सख्यभाव था। वे उनके साथ एकान्त में मित्रों जैसा खेल करते थे। उन्हें कभी लड्डू खिलाते, कभी लड़ाई ठान लेते, कभी स्वयं भावविभोर होकर करुणासिक्त हो जाते, तो कभी उल्लसित होकर हँसने लगते। ऐसी बहुत-सी क्रियाएँ उनकी अनुराग भक्ति में हुई चरम परिणति की द्योतक हैं। बाबा जहाँ भी जाते, ऐसा लगता था कि वह किसी महाभाव में निमग्न हैं, उन्हें अपने शरीर की सुधि भी नहीं रहती थी। श्रीहनुमत्कृपा का यह अद्भुत रूप उन्हें छाया की भाँति छत्र बनकर ढके रहता था। श्री हनुमान जी की अमोघ साधना नीबकरौरी में उदित हुई और आज उसकी सिद्धि का प्रताप समग्र भू-मण्डल पर छा जाने को उद्यत है।



           बाबा नीबकरौरी जी महाराज एक साधारण- सी धोती पहनते थे और कम्बल ओढ़ते थे। उनका यह विशालकाय विग्रह, उन्नत ललाट, दीप्तिमान नेत्र, तेजस्वी मुख, आजानुबाहु, विस्तृत वक्ष जैसे सभी उदारतापूर्वक सुरुचि से गढ़े गये थे। साधारण वेष में रहने के कारण आडम्बरता से कहीं दूर, यशकामना से अरुचि रखनेवाले बाबा का जीवन सादगी से भरा हुआ था। उनकी झल्पसिद्धता, निश्चित ही भक्तों को अपनी ओर आकर्षित किये बिना नहीं रह सकती थी। बाबा ने अपनी वाणी से जो कह दिया, वह हो गया या होकर रहा। उनकी वाणी में सिद्धि का निवास और उनके कर में ऋद्धि का निवास था। यह बाबा के कठोर तप का ही फल था। निर्धन को धन, बेरोजगार को रोजगार, निःसन्तान को सन्तान, अशिक्षित को शिक्षा, रोगी को नीरोगता, संकटग्रस्त को त्राण और अनाथ को शरण देना संत शिरोमणि बाबा की। तपस्या का लक्ष्य रहा। 
           भारतवर्ष में एक स्थान है, जिसे सभी भारतीय धर्म सम्प्रदायों ने अपना केन्द्र-स्थल बनाया है, वह है वृन्दावन धाम। ब्रजवसुधा की सुधा, इस वृन्दावन स्थली का सेवन जिसने किया वही अमर हो गया। बात इतनी-सी नहीं है- 'करत कठिन बरनत सरल' -यहाँ निवास करना कठिन है यह धाम वर्णन में सरल है। महाराज जी ने श्रीकृष्ण की लीला भूमि वृन्दावन में श्री हनुमान जी की सेवा का विधान करके धाम की कठिनता को सरल बना दिया और अपने भक्ति आन्दोलन का अभियान यहीं से प्रारम्भ किया। उन्होंने वृन्दावन धाम रूप-रस का स्वयं भी पान किया और अपने भक्तों को भी कराया। गोपियों से प्रेमतत्त्व, श्री हनुमान जी की आराधना से सेवा तत्त्व और भक्ति साधना से त्याग तत्त्व लेकर, वे जहाँ भी पहुँचे वहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती रूप त्रिवेणी का प्रवाह होता चला गया और महाराज जी तीर्थराज प्रयाग बनते चले गये।
           श्री महाराज जी के भक्तों में बड़े-बड़े नेता, बड़े-बड़े व्यापारी, दीन, हीन, अपाहिज, बूढ़े, बालक-स्त्री, पुरुष, नौजवान सभी वर्गों के लोग हैं। महाराज जी किसी तथाकथित बड़े आदमी के यहाँ नहीं गये। वे उसके पास पहुँचे, जिसने प्रेम से उन्हें पुकारा, जो दिल से दीन हुआ, यह दरवेश उसी के द्वार पर पहुँच गया! जिस पर हाथ रख दिया, उसका उद्धार कर दिया, जिससे नहीं मिलना चाहा, उसे कभी दर्शन नहीं दिये। हजारों की संख्या में भक्त बाबा के पीछे-पीछे चलते थे। महाराज जी ने अपने प्रभाव से नर-नारियों के हृदय को जीत लिया था। वे अपनी वाणी से उनके मर्म को छूते थे। यह छुअन ऐसी होती थी कि छूते ही सब कुछ लुट जाता था और अगाध विश्वास के साथ समर्पण करने को विवश होना पड़ता था।
           श्री महाराजजी ने देशभर में जो भी मन्दिर बनवाये, वह किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर न होकर, श्री हनुमान जी के ही मन्दिर हैं और भक्तों के देवालय हैं। मन्दिरों पर किसी व्यक्ति विशेष का आधिपत्य, उनके सिद्धान्त के विरुद्ध था। उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में वृन्दावन, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, बनारस, इलाहाबाद आदि जगहों पर और पहाड़ी इलाके में कैंची भूमियाँधार, कांकड़ी घाट, नैनीताल, हनुमान गढ़ी, धारचूला, और ऋषिकेश, शिमला आदि स्थानों पर ठाकुर श्री हनुमान जी की सेवा की प्रतिष्ठा कर, बाबा ने भक्ति का प्रचार ही नहीं, अपितु अपने भक्तों के चित्त को निर्मल करने, उनमें भय का संचार न होने देने, संकट और संघर्ष की स्थिति में अडिग बने रहने और राष्ट्र की रक्षा के लिए श्री हनुमान जी की वीरता से प्रेरणा लेने आदिक लक्ष्यों की प्राप्ति को ध्यान में रखकर, एक महत् उद्देश्य की पूर्ति की है। 
           महाराज श्री का निर्वाण, लोक-सेवा करते-करते ही अचानक अनन्त चतुर्दशी 11 सितम्बर 1973 को वृन्दावन में हो गया। यह पर्व का दिन अनन्त चतुर्दशी निर्वाणोत्सव के रूप में उनकी स्मृति का खुला खजाना है, जिसे हर भक्त उदार होकर अपना सकता है बाबा महाराज के आध्यात्मिक ज्ञान का उद्घोष, सेवा उदधि की पवित्र तरंगें और अनुराग का उत्तुंग हिमालय उनके चिरन्तन यश के गायक बने हुए है। 
           अनन्त चतुर्दशी का यह पर्व भगवान अनन्त नारायण महाविष्णु के परम साक्षात्कार का दिवस है। अनन्त कोटि सृष्टि का विस्तार शेषशायी विष्णु (केशव) ने इसी दिन किया था। घोर वर्षाऋतु में लीला से ही अपने नयनों को मूंदकर अनन्त और अनादि प्रजनन और लय का भार परब्रह्म परमात्मा ने स्वयं स्वरूप मनुष्य को कराया तथा समस्त प्राणियों के भरण-पोषण का दायित्व स्वयं वहन करने के कारण ही वह विश्वम्भर कहलाया। अनन्त चतुर्दशी की इसी अनंतता के रहस्य को सत्य संकल्प भाव से हृदयंगम करनेवाले संत शिरोमणि बाबा श्री नीब करौरी महाराज का इसी तिथि को लीन होना परम शिवत्व का परम वैष्णत्व में लय होना है। 
           महाराज जी की उपस्थिति से वृन्दावन धाम के आश्रम की व्यवस्था स्वयं उन्हीं के आत्मस्वरूप संतात्मा पंडित धर्मनारायण जी की उपस्थिति-निमित्त से संचालित हो रही है, और समस्त भक्तगण जो महाराज जी के समय से ही जुड़े हुए हैं, तथा आज भी निरन्तर बढ़ रहे हैं, वह बाबा के हजार-हजार हाथ और मस्तक स्वरूप होकर निरन्तर सेवा में संलग्न हैं। श्री महाराज जी आज भी समाधि में सदैव बैठकर सभी भक्तों की पीड़ा को सुन रहे हैं और उन्हें उनके मनोनुकूल मार्गदर्शन कर रहे हैं तथा अपनी कृपादृष्टि से स्नेहसिक्त करते हुए पोषित कर रहे हैं। उनका यही सेव्य स्वरूप प्रणम्य है। 


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डा. रामकृष्ण शर्मा


कानपुर