मित्रता की महिमा


मित्रता की महिमा
कृष्ण एवं सुदामा में बहुत अन्तर हो लेकिन दोनों में वह मित्रता भी जो आज भी अमर है। मित्र के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे दोनों मित्र के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे दोनों एक समान हो दोनों राजा ही या दोनों गरीब ही हो। मित्रता किसी से भी किसी तरह से हो सकती है।



जहॉं सच्चे हृदय से दो व्यक्ति आपस में आत्मभाव अपनापन स्थापित करते है वहीं मैत्री को बीज जमता है। दो हृदयों में एक दूसरे के प्रति आत्मीदय होना ही मैत्री है। ऐसी मैत्री इस लोक की बहुमूल्य सम्पति है मैत्री की महिमा अपार है। मन की सारी व्यथाएं जिसे सामने प्रगट की जा सकती है और व्यवहार योग्य समुचित सलाह जिससे प्राप्त की जा सकती है वही सच्चा मित्र है। ऐसा मित्र होना जीवन की एक बहुमूल्य सम्पदा है।
भगवान राम और सुग्रीव की मित्रता जगत प्रसिद्ध है। राम ने जब सुग्रीव का वृतान्त सुना, उनके कष्टों को अनुभव किया तो अपन कष्टों को भुलाकर पहले सुग्रीव की समस्यों का समाधान किया। मित्र को पूर्ण रूपेण संतुष्ट करने के पश्चात ही राम ने अपनी समस्या का समाधान चाहा। स्वयं राम ने मित्रता के सम्बन्ध में कहा है.....



जेन मित्र दुख होई दुखारी
तिनहि विलोकत पातक भारी।



मित्रता दो समान हृदयों की होती है इसमें दुरान का कहीं कोई स्थान नहीं होता। एक दूसरे के सुख-दुःख में सहभागिता ही मित्र भाव को पुष्टि करता है। रावण के लात मार कर दुत्कारा हुआ विभीषण जब राम की शरण में आता है तो राम मिलते ही उसके सब दुखों को हर लेते है और उसका राज्याभिषेक करके लंकाधिपति घोषित कर देते है। यह राम की मित्रता का अनुपम उदाहरण है।



‘मिला जाम जब अनुज तुम्हारा ।
जतहि राम तिलक तेहि सारा ।।



विभीषण ने भी अपना मित्र धर्म निभाया। घर का भेदी लंका ढाए’ जैसा कलंक अपने सिर लेकर सगे भाई आवतायी रावण के वध का कारण बना। सच्चा मित्र वही है जो मित्र के गुणों में वृद्धि एवं उसको सत्मार्ग पर प्रेरित कर कुमार्ग से दूर करने का प्रयास करें। संतो ने सच्चे मित्र की पहचान इस प्रकार बतायी है।



पापान्निवारयति पोजयते हिताय।
गुहयं च निगुहति, गुणान प्रगटी करोति।।
आयद्गतं च न जहाति ददाति काले।
सन्मित्रम् लक्षणममिदम प्रवदन्ति सन्ताः।।



सच्चा मित्र बड़ा ही दुलर्भ है। बहुत भाग्यशाली को ही सच्चा मित्र मिलता है। महाराजाधिराज भगवान श्री कृश्ण जी गरीब दरिद्र सुदामा के मित्र थे। रहीम ने लिखा है कि



जे गरीब पर हित करे ते रहीम बडलोग
कहां सुदामा वापुरो कृष्ण मिताई जोग।।



कृष्ण एवं सुदामा में बहुत अन्तर हो लेकिन दोनों में वह मित्रता भी जो आज भी अमर है। मित्र के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे दोनों मित्र के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे दोनों एक समान हो दोनों राजा ही या दोनों गरीब ही हो। मित्रता किसी से भी किसी तरह से हो सकती है। राजा और रंक दोनों एक दूसरे के पक्के मित्र हो सकते है।
भगवान श्री कृष्ण ने गरीब सुदामा को जो मित्रता के कारण जो आदर और सम्मान दिया वह सुरदुमा है।
सुदामा जी मुट्ठी भर चावल का उपहार लेकर भगवान द्वारिकाधीश से मिलने चल पड़े और द्वारिका पुरी पहुॅंच कर द्वारपाल से बताया कि मैं कृश्ण जी से मिलने आया हूॅं वे हमारे मित्र है। सुदामा की दशा को देखकर भगवान कृश्ण से द्वार पाल की यह बताने की हिम्मत नहीं हो पाई कि आप के मित्र आये है। बल्कि उनकी वेश भूशा और दशा का वर्णन करते हुए अन्त में नाम बताया कि



शीश पगा न झगा तन में
प्रभु जोने को आठि वसै केहि ग्रामा ।
धोती फटी सी लटी दुपटी अठ,
पाव उपानहुँ की नहीं सामा ।
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक
रहयो चकि सौ वसुधा अनि रामा ।
पूछत दीन दयाल को धाम,
वतावत आपनौ नाम सुदामा ।।



नाम सुदामा सुनते ही श्री कृष्ण की ऐसी दशा हुई जिसका वर्णन नरोत्तम राम जी ने किया है...



सुदामा नाम पाडे, सुनि छाडे राज काज ।
ऐसे जिय की गाति जानै कौ।
देखी सुदामन की दीन दशा
करूणा कटिके करूणा निधि रोये ।
पानी परात को हाथ छुयो नहि
नैनन के जल औ यग धोये ।।



द्वारिकाधीश श्री कृश्ण ने स्वयं सुदामा के चरण प्रेमा श्रुओं से धोकर अपनी प्रीति को अमर कर दिया। श्री कृश्ण की मित्रता से धन्य हो गई भारतीय संस्कृति। ऐसा मित्रता निश्कपट एवं निश्चल मित्र को ही मिल पाती है। दो मित्रों में अन्त रंगता ही शोभती है।



प्रेम प्रीति से जो मिलै तासो मिलि ए धाम ।
अन्तर राखे जो मिलै तासो मिलै बलाय ।।



जहॉ ऊॅच नीच पद प्रतिश्ठा जीव और ब्रह्म के समस्त भेद मिटा कर केवल एक भाव ही रहता है वह है मित्र भाव।
स्वभाव की समानता मित्रता था मूल आधार है जिनके स्वभाव में मनोवृतियों इच्छाओं आकांक्षाओ में समाता है वे ही अच्छे सिद्ध हो सकते है। रहीम ने लिखा है।



रहिमन मीत सोई सराहिए मिले होत रंग दून ।
ज्यों जरदी हरदी तजै तजै सफेदी चून ।



मित्रता शुद्ध सात्विक प्रेम है। जिसमें मात्र देना ंहै। लेने की आकांक्षा इसमें नहीं होती।
अरस्तू ने लिखा है कि एक मित्र हो तो बहुत है दो है तो बहुत अधिक है। तीसरा तो हो ही नहीं सकता। बिना मित्र के कोई रह नहीं सकता।
मित्रों द्वारा व्यक्ति अपना सारा कार्य सकुशल सम्पन कर लेता है। बिना मित्र के जीवन व्यर्थ है।
इसलिए सुख चाहने वालों को मित्र को मित्र रखना ही चाहिए। अतैव मित्र की महिमा बहुत ही वही इसलिए मित्र को बहुत बचाकर रखना चाहिए।
मर्यादा पुरुषोत्तम राघवेन्द्र सरकार श्री राम चन्द्र जी महाराज को भी सफलता पाने के लिए मित्र ही बनाना पड़ा था। उन्हीं मित्रों द्वारा ही उन्होंने सफलता पाई है। अतः मित्र की महिमा अपार है।