त्रेता ब्रह्म मनुज तनु धरिहीं

त्रेता ब्रह्म मनुज तनु धरिहीं 



‘‘त्रेता ब्रह्म मनुज तनु धरिहीं । 
तासु नारि निसिचर पति हरिहीं ।।’’
‘‘तासु खोज पठइहि प्रभु दूता । 
तिन्हहि मिलैं तैं होव पुनीता ।।’’
(किष्किन्धा - 27)
लंकिनी के वचन रहे कि -
‘‘जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा । 
चलत विरंचि कहा मोहि चीन्हा ।।’’
‘‘विकल होसि तैं कपि के मारे । 
तब जानेसु निसिचर संघारे ।।’’
हाथ जोड़कर उसने श्री हनुमानजी को प्रणाम किया - मुक्त होने का समय आ गया था वह जानती थी कि लंका अधर्म अनीति का क्षेत्र है किन्तु प्रारब्ध वश उसे वहाँ वह करना पड़ता था जो वह जानती थी कि अधर्म है - तो ‘‘रामदूत’’ जी के दर्शन पाकर वह धन्य-धन्य ही हो गई। गदगद कंठ होकर कहती है लंकिनी 
‘‘तात मोर अति पुन्य बहूता । 
देखेऊँ नयन राम कर दूता ।।’’
‘‘तात स्वर्ग अपवर्ग सुख चरिऊ तुला एक अंग ।।’’
‘‘तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ।।’’ 
(दो 4 सु0 का0)