मत्स्येंद्रनाथ को त्रिया राज्य भेजने वाले थे हनुमान जी

मत्स्येंद्रनाथ को त्रिया राज्य भेजने वाले थे हनुमान जी



हनुमान जी उर्ध्वरेता बाल ब्रह्मचारी हैं लेकिन पाराशर संहिता और नवनाथ चरित में उनके विवाह का उल्लेख मिलता है। उनके पुत्र मकरध्वज का जिक्र भी पुराणों में प्राप्त होता है। सवाल यह उठता है कि हनुमान जी महाराज बाल ब्रह्मचारी हैं तो उनकी पत्नी और पुत्र होने का क्या चक्कर है? नवनाथ चरित में प्रसंग मिलता है कि गोरखनाथ के गुरु और योगी दत्तात्रेय के प्रथम शिष्य योगी मत्स्येंद्र नाथ को त्रियाराज्य में भेजने वाले और वहां की रानी मैनाकिनी के प्रेम में उलझने की प्रेरणा देने वाले हनुमान जी ही थे। हुआ यह था कि एक बार योगी मत्स्येंद्रनाथ सेतुबंध रामेश्वर के दर्शन करने पहुंचे थे। दैवयोग से उसी समय वहां वर्षा होने लगी। मत्स्येंद्र नाथ ने देखा कि बरसात से बचने के लिए एक बंदर बालू हटाकर उसमें गुफा बनाता और उसमें धुसने की कोशिश करता लेकिन हर बार उसका प्रयास विफल हो जाता। यह देखकर मत्स्येंद्रनाथ को हंसी आ गई। उन्होंने हंसते हुए कहा कि अरे बंदर बालू का घर कहीं टिकाउ होता है। इस पर बंदर ने जवाब दिया कि ए योगी। योगी हो, योगी का काम करो। यहां-वहां जाकर भीख मांगो। मुझे उपदेश मत दो। मत्स्येंद्रनाथ ने गुस्से में कहा कि बंदर क्या तू मुझे साधारण योगी समझता है। तब बंदर ने कहा कि क्या तू मुझे साधारण बंदर समझता है। रुक, अभी तुम्हारी हंसी पर रोक लगाता हूं। यह कहकर वानर वहां से चला गया और एक पहाड़ की बड़ी सी चट्टान उसने योगी मत्स्येंद्रनाथ पर फेंक दिया। मत्स्येंद्रनाथ ने स्तंभन मंत्र का प्रयोग कर उसे बीच में ही रोक दिया। तब वानर उस पर कूद गया। उसे भरोसा था कि जिस तरह पर वह जिस पर्वत पर पैर रख देते थे और पर्वत पाताल में धंस जाता था, वैसा ही चमत्कार वह यहां भी कर दिखाएंगे लेकिन चट्टान पर पैर रखते ही स्पर्श अस्त्र का प्रयोग कर मत्स्येंद्रनाथ ने उन्हें वहीं चिपका दिया और इसके बाद नागास्त्र का प्रयोग किया। ढेरों नाग वानर के शरीर से लिपट गए। तब वानर ने विकल होकर प्रभु श्रीराम को याद किया। तत्काल गरुड वहां पहुंचे और उन्हें देखते ही नाग भाग खड़े हुए। तब मत्स्येंद्रनाथ को लगा कि यह वानर सामान्य वानर नहीं है। हो न हो, यह वानरश्रेष्ठ हनुमान हों। ऐसा विचार कर उन्होंने ध्यान लगाया तो मुस्कुराते हुए हनुमान और श्रीराम के उन्हें ध्यान में दर्शन हुए। उन्होंने हनुमान जी को प्रणाम किया और अपने कटुवचन के लिए उनसे क्षमा मांगी। हनुमान जी ने कहा कि आपको देखते ही मैं पहचान गया था कि आप सिद्धयोगी मत्स्येंद्रनाथ हैं। आपकी परीक्षा लेने के लिए ही मैंने यह लीला रची थी। तब मत्स्येंद्रनाथ ने कहा कि आप मुझे कोई आदेश दें जिसे करके मैं आपके प्रति हुए इस अपराध बोध से मुक्त हो सकूं। तब हनुमान जी ने उनसे कहा था कि तुम त्रियाराज्य में जाकर वहां की रानी मैनाकिनी से शादी कर लो। इस पर मत्स्येंद्रनाथ ने कहा कि यह आप क्या कहते हैं। मैं योगी हूं। बाल ब्रह्मचारी हूं। मैं भला क्यों किसी नारी का पति बनूं तो हनुमान जी ने कहा कि मेरे वचन की रक्षा के लिए। मैं रानी मैनाकिनी को वचन दे चुका हूं। और यह कोई पहली बार नहीं है। हर जन्म में आपने मुझसे यही सवाल किया है और हर बार मेरे कहने पर आप त्रियाराज्य में गए हो। मत्स्येंद्रनाथ मैं 99वें वां हनुमान हो और तुम 99वें मत्स्येंद्रनाथ हो। तुम मुझसे पूछ सकते हो कि मैं उर्ध्वरेता बालब्रह्मचारी होने के बाद भी त्रियाराज्य से क्यों जुड़ा हूं। तो जानों रानी मैनाकिनी समेत त्रियाराज्य की सभी स्त्रियां मुझे पति मानती हैं। मेरी गर्जना से ही वहां स्त्री गर्भ ठहरता और पुरुष गर्भ गिरता है। लेकिन रानी मैनाकिनी ने मुझसे प्रत्यक्ष सहवास की कामना की थी तो मैंने उसे कहा था कि आज से ठीक एक माह बाद मत्स्येंद्रनाथ नाम का एक योगी आएगा, वह तुम्हारा पति होगा।
मत्स्येंद्रनाथ ने पूछा कि सो तो ठीक है लेकिन त्रियाराज्य से आपका क्या रिश्ता है? तब उन्होंने बताया कि एक बार माता सीता ने मुझे आदेश दिया कि अयोध्या में सभी विवाहित हैं, हनुमान तुम भी शादी कर लो। तब मैं भगवान राम के पास गया तो उन्होंने कहा कि हनुमान मैं 99वें राम हूं। हर जन्म में सीता ने तुमसे यही बात कही है और हर बार तुम मेरे पास इसी तरह आए हो। सीता के आग्रह पर तुम्हें हर बार त्रियाराज्य जाना पड़ा है। मत्स्येंद्रनाथ को लगा कि शिवावतार हनुमान उनसे झूठ नहीं बोल सकते। वे उनके साथ त्रिया राज्य चले गए। यह अलग बात है कि उनके शिष्य गोरक्षनाथ उन्हें त्रियाराज्य से निकालकर ले गए थे। हनुमान जी ने जिस समय लंका जलाई थी और अपनी थकान दूर करने के लिए समुद्र में कूदे थे। उसी वक्त एक मछली जो पूर्व जन्म की अप्सरा थी ने उस तेज को अपने अंदर धारण कर लिया था जिससे मकरध्वज की उत्पत्ति हुई थी। यह मकरध्वज अहिरावण का द्वारपाल था। बाद में हनुमान जी ने उसे त्रियाराज्य का द्वारपाल बना दिया था।
हनुमानजी के विवाह की एक तीसरी कथा पाराशर संहिता में पढ़ने को मिलती है। आंध्रप्रदेश के खम्मम जिले में एक मंदिर ऐसा विद्यमान है, जो प्रमाण है हनुमानजी के विवाह का। इस मंदिर में हनुमानजी की प्रतिमा के साथ उनकी पत्नी की प्रतिमा भी विराजमान है। इस मंदिर के दर्शन करने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। माना जाता है कि हनुमानजी के उनकी पत्नी के साथ दर्शन करने के बाद पति-पत्नी के बीच चल रहे सारे विवाद समाप्त हो जाते हैं। उनके दर्शन के बाद जो भी विवाद की शुरुआत करता है, उसका बुरा होता है।
हनुमानजी की पत्नी का नाम सुवर्चला था। वैसे तो हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी हैं और आज भी वे ब्रह्मचर्य के व्रत में ही हैं, विवाह करने का मतलब यह नहीं कि वे ब्रह्मचारी नहीं रहे। कुछ विशेष परिस्थितियों वश बजरंगबली को सुवर्चला के साथ विवाह बंधन में बंधना पड़ा। हनुमानजी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था। हनुमानजी भगवान सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। सूर्य कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमानजी को दिन भर भगवान सूर्य के रथ के साथ-साथ उड़ना पड़ता था और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह की विद्याओं का ज्ञान देते। लेकिन हनुमानजी को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया। कुल 9 तरह की विद्याओं में से हनुमानजी को उनके गुरु ने 5 तरह की विद्याएं तो सिखा दीं, लेकिन बची 4 विद्याएं और ज्ञान ऐसे थे, जो केवल किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे। हनुमानजी पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम पर वे मानने को राजी नहीं थे। इधर भगवान सूर्य के सामने संकट था कि वे धर्म के अनुशासन के कारण किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं नहीं सिखा सकते थे। ऐसी स्थिति में सूर्यदेव ने हनुमानजी को विवाह की सलाह दी। अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमानजी ने विवाह करने की सोची। लेकिन हनुमानजी के लिए वधू कौन हो और कहां से वह मिलेगी? इसे लेकर सभी सोच में पड़ गए। ऐसे में सूर्यदेव ने अपनी परम तपस्वी और तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमानजी के साथ शादी के लिए तैयार कर लिया। इसके बाद हनुमानजी ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई। इस तरह हनुमानजी भले ही शादी के बंधन में बंध गए हो, लेकिन शारीरिक रूप से वे आज भी एक ब्रह्मचारी ही हैं।
हनुमान जी की लीलाएं अपार हैं। लंका में उन्होंने गर्जना कर निश्चरों की वंश वृद्धि रोक दी थी। ‘गर्भ स्रवहिं रजनीचर नारी।’ लोक में अगर राक्षसों की वृद्धि नहीं हो रही है तो यह हनुमान जी की गर्जना का ही प्रभाव है।


नीलम दीक्षित
लखनऊ