ग्यारहवें रुद्र के अवतार हैं मारुतिनंदन

ग्यारहवें रुद्र के अवतार हैं मारुतिनंदन



श्री हनुमानजी ग्यारहवें रुद्र के अवतार हैं। उनके दिव्यता की मूल प्रकृति भगवान शिव हैं। श्रीरामचरितमानस से लेकर रामायण, महाभारत वायुपुराण आदि ग्रन्थों में हनुमतचरित्र शब्द रत्न के रूप में उद्धासित हो रहा है। भारतीय आस्तिक परम्परा में अष्टचिरंजीवियों को प्रातःकाल श्रद्धा से स्मरण किया जाता है। उन दीर्घजीवियों में हनुमानजी महाराज भी परिगणित है। उन्हें अजरता एवं अमरता का वरदान भगवती सीता से प्राप्त हुआ है जैसा कि रामचरितमानस में वर्णित है-
अजर अमर गुननिधिसुत होहूँ ।
करहु बहुत रघुनायक छोहू ।।
महाभारत के रामोपाख्यान में भी सीताजी हनुमानजी को चिरंजीवी होने का वरदान देती है-
रामकीर्त्या समं पुत्र । जीवितं ते भविष्यति ।।
हे पुत्र! जैसे संसार में रामजी का यश अजर एवं अमर है उसी प्रकार तुम्हारा जीवन भी अजर व अमर होगा। वानरयोनिजन्मा अंजना के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर वायुदेवता ने उनके गर्भ में अपने तेज की स्थापना की उसी से हनुमानजी का जन्म हुआ। अंजना के पति केशरी थे। अतः हनुमानजी के दृष्टपिता केशरी एवं अदृष्ट पिता वायुदेवता कहलाये। इसी कारण हनुमानजी के वायुपुत्र, आंजनेय केशरीनन्दन, केशरी किशोर आदि नाम प्रसिद्ध हुए परन्तु हनुमान नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय हुआ। जन्म लेते ही हनुमानजी उदीयमान सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ने के लिये आकाश में कूद पड़े। उनकी इस बाल्यधृष्टता को देखकर इन्द्र ने उन पर वज्र का प्रहार कर दिया जिससे उनकी बायीं हनु (ठोढ़ी) भग्न (टूट) गयी तभी से उनका नाम हनुमान पड़ा। जैसा कि रामायण में प्रमाण है-
तदा कैलाशशिखरे, नमों हनुरभज्यत ।
ततोडभिनामधेयं ते, हनुमान ज्ञति कीर्तितम् ।।
(वा.रा.कि.का.)
हनुमानजी का जन्म ही रामकार्यसिद्धि के लिये हुआ था इसीलिये हनुमच्चरित्र रामचरित्र के बिना अपूर्ण है। गोस्वामी तुलसीदासजी हनुमतजन्म के प्रयोजन का वर्णन करते हैं-
रामकाज लगि तब अवतारा । रा.मा.
रामकाज करिबे को आतुर (हनुमान चालीसा)
भगवान राम जल साकेतधाम पधार रहे थे तो हनुमानजी ने कहा ‘‘भावो नान्यत्र गच्छति’ अर्थात् हे प्रभु! आपकी दया, करुण, कृपा, सौशील्य, वीर्य, पराक्रम आदि दिव्यभावों का अनुभव इसी मर्त्यलोक में ही सम्भव है। वे दिव्यभाव अन्यत्र नहीं जाते हैं अतः आपके अलौकिक चरित्रों का अनुभव करने के लिये मैं पृथ्वीलोक में ही रहूंगा। रामजी के साकेतधाम पधारने के बाद हनुमानजी हिमालय पर जाकर गन्धर्वों से रामकथा सुनकर समय बिताने लगे। जैसा कि श्रीमद्भागवत में वर्णन है-
‘‘परम भागवतो हनुमान किम्पुरुषैः
सह अविरत भक्ति रुपास्ते।’’
(भा. 6119)
हनुमत कृपा की भद्रपीठिका पर ही रामजी की कृपा विराजती है। बिना हनुमतकृपा प्राप्त किये रामकृपा के कपाट नहीं खुलते। जैसा कि गोस्वामी जी ने लिखा है-
राम दुआरे तुम्ह रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।।
(हनु.चा.)
निर्वासन के समय सुग्रीव के ऊपर हनुमतकृपा पहले प्रकट हुई। हनुमानजी स्वयं रामलक्ष्मण को लेकर सुग्रीव को पास आये तब उन के ऊपर रामकृपा हुई, बालिबध हुआ और सुग्रीव पुनः राज्य एवं सत्ता को प्राप्त किये।
विभीषण भी लंका से निर्वासित हुए, रामजी की शरणागति ग्रहण किये रावणवद्योपरान्त लंकेश्वर हुए परन्तु शरणागति से पूर्व विभीषण को हनुमानजी के ही दर्शन हुए और हनुमानजी उनके ऊपर कृपा करते हुए रामजी के स्वभाव का वर्णन किया जैसा कि मानस में वर्ण है-
अस मैं अधम सखा सुनु, मोहू पर रघुवीर।
रावण अपने प्रचण्ड शौर्य के द्वारा इन्द्र, चन्द्र, शनि, समुद्र आदि का निग्रह कर लिया था। इन्द्र, वायु आदि देवता उसकी टहल बजाते थे परन्तु हनुमानजी लंका में पहुँचकर देवताओं को बन्धनमुक्त किया।
जाम्बवान्, नल, नील, अंगद आदि वानर श्रेष्ठ सुग्रीव के आदेश से सीतान्वेषण में निकल पड़े। उन वानरों को कठोर शासनादेश था कि यदि सीता का पता लगाये बिना लौटे तो जीवित नहीं बचोगे। ऐसे प्राणसंकट की बेला में हनुमानजी समुद्र लांगकर सीता का पता लगाकर सारे भालू बन्दरों के प्राण बचाये। जैसा कि गोस्वामी जी स्वयं ही हनुमतकृपा का वर्णन करते हैं-
राखे सकल कपिन्ह के प्राना ।
रावण विजयोपरांत श्रीरामजी की प्रेरणा से आंजनेय अशोकवाटिका पहुँचकर देखते है कि सीताजी को राक्षसियाँ विकराल रूप धारण कर डरा रही हैं, विविध प्रकार से पीड़ा दे रही हैं। ऐसी दशा में हनुमानजी राक्षसियों के चित्रवध का निर्णय लेते हैं परन्तु सीताजी के आदेश से हनुमानजी राक्षसियों का वध नहीं करते हैं जबकि राक्षसियाँ हनुमानजी को देखते ही उनके लंकादहन को यादकर अत्यंत डर सी जाती है। परन्तु वायुपुत्र उन पर दयाकर उन्हें जीवन प्रदान करते हैं जैसा कि पराशरभट्ट लिखते हैं -
रक्षन्त्या पवनात्माल्लघुतरा रामस्य गोष्ठीकृता । ।
(श्री गुणरत्न)
लंकाविजयोपरान्त रामजी के वनवास की अवधि में मात्र दो दिन ही शेष हैं। रामजी को भरत की चिंता सता रही है कि यदि मैं समय से अयोध्य नहीं पहुंचा तो भरत हमारे वियोग में आत्मदाह कर लेंगे। इस अनिष्ट से बचने हेतु वह वायुसमगामी वायुपुत्र को निजागमन की सूचना हेतु भरत के सानिध्य में भेजते हैं। हनुमानजी भरत को रामजी के आगमन की सूचना देकर उनकी प्राणरक्षा करते हैं। यह भी हनुमानजी का अप्रत्यक्ष अनुग्रह है। लंका से लौटते समय माता अंजना को सपरिवार श्रीरामजी का दर्शन कराकर माता के ऊपर भी कृपा ही करते हैं।
हनुमानजी की उपर्युक्त पात्रों के ऊपर जो कृपावृष्टि की वह कृपा का निष्काम स्वरूप है। क्योंकि विभीषण, अंगद, माता अंजना आदि रामजी की प्रीति के अलावा अन्य किसी वस्तु की कामना नहीं की थी। फलतः हनुमानजी की कृपा से श्रीरामजी को प्रीति उन्हें प्राप्त हुई।
आज भी हनुमानजी श्रीरामजी के लीला, धाम आदि का अनुभव करते हुए जीवन्त बने हुए। जहां भी रामकथा होती है हनुमानजी अप्रत्यक्ष रूप से वहाँ अवश्य पधारते हैं। वह अन्य रसों से सर्वथा विरत हो रामकथा का आनन्द लेते हुए विचरण करते रहते हैं-
‘‘प्रभु चरित्र सुनिबे को रसियाँ’’
(हनुमान चालीसा)
इस संसार में रामभक्तों के जो भी कठिन कार्य हैं वह हनुमानजी की कृपा से शीघ्र सरल हो जाते हैं। जैसा कि गोस्वामी जी ही प्रमाण है-
।। दुर्गम काज जगत के जेते ।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ।।
श्री हनुमानजी की कृपा से संसार का कोई भी ऐश्वर्य अलभ्य नहीं है क्योंकि वे अष्टसिद्धि एवं नवनिधि के प्रदाता कहे गये हैं-
अष्टसिद्धि नवनिधि के दाता,
अस वर दीन्ह जानकी माता ।।
क्योंकि इस कलिकाल में वैदिक विधि से देवाराधन कर देवकृपा प्राप्त करना बहुत कठिन है। वैदिको पासना में वस्तुशुद्धि, मन्वशुद्धि आदि बहुत कठिन है। बिना पवित्र वस्तुओं की आराधना से आराध्य प्रसन्न नहीं होते जबकि हनुमानजी की आराधना बहुत सरल है। वह पवित्रभाव से ही कृपावृष्टि कर देते हैं। इस विषय में गोस्वामी जी का अनुभव ही प्रमाण है- ‘‘और देवता चित्त न धरई, हनुमत सेई सर्वसुख करई’’
हनुमानजी की कृपा के बारे में अधिक क्या कहा जाय, गोस्वामी तुलसीदास का जीवन ही हनुमत्कृपा से भरा हुआ है। गोस्वामी जी को रामजी का दर्शन हनुमत्कृपा से ही सुलभ हो सका। इसी कारण से ही गोस्वामी जी अपनी रचनाओं में हनुमानजी की कृपा को पद-पद पर स्मरण करते हैं। गोस्वामी जी की दृष्टि में हनुमानजी से श्रेष्ठ अन्य रामभक्त नहीं हैं वे सुन्दरकाण्ड के मंगलाचरण में लिखते हैं-
‘‘रघुपति प्रियभक्तं, वातजातं नमामि ।।
गोस्वामीजी के परवर्तीकाल में अयोध्यावासी संत गोकुलदासजी हुए हैं जिनकी साधनापूत यशपताका गोकुलभवन के रूप में आज भी फहरा रही है वह हनुमानजी के नैष्ठिक साधकों में अनन्यतम है। उन्होंने अपनी उपासना से हनुमतकृपा का अनुभव किया और कई हनुमतकृपापरक स्तोत्र की रचना की जो हनुमतकृपा प्रदान करने में अचूक है। ऐसा साधकों ने अनुभव किया है उन्हीं स्तोत्र में ‘‘हनुमतग्यारहवीं स्तोत्र’’ प्रमुख है।
हनुमानजी के साधकों में बाबा नीमकरोड़़ीदास को अत्यन्त श्रद्धा से याद किया जाता है। वह गृहस्थ होते हुए भी हनुमतकृपा की वह ज्योति जलाई जिसकी धवलप्रभा से देश-विदेश के सभी भक्तों का हृदय हनुमतभक्ति से आलोकित हो उठा। उनके दर्शन से धन्य हुए भक्त जन कहते हैं कि उनका एक हाथ बन्दर का था हो भी क्यों न क्योंकि वे हनुमतकृपा का सततचिन्तन करते हुए तदाकाराकारित हो गये थे। इस प्रकार भी हनुमानजी महाराज के अनगिनत चरित्र एवं कृपा के आख्यान वेदों से लेकर जनभाषा तक में प्रचलित है और उन चरित्रों या प्रयोगों का अनुष्ठान करने पर निश्चय ही हनुमानजी की कृपा प्राप्त हो रही है।


लक्ष्मी नारायण दुबे
अलीगंज, सुल्तानपुर