अपनी बात

                     


                                              


                          अपनी बात


संसार में ईश्वर की तरफ से समस्त मानवजाति को ऐसा वरदान मिला है जिसके बल पर वह जो चाहे बन सकता है और जो चाहे हासिल कर सकता है। अच्छे विचारों वाला व्यक्ति धीरे-धीरे अच्छा बनता जाता है और बुरे विचारों वाला बुराइयों में लिप्त होता जाता है। धन और साधन के बिना जीवनयापन असंभव है लेकिन सुबह जगने से रात सोने तक सिर्फ धनार्जन की जुगत में ही लगे रहना भी तो सही नहीं है। जीवन में धन की जरूरत को नकारा नहीं जा सकता लेकिन उसकी भी सीमा है। भौतिकतावादी जीवनशैली व आपा-धापी की जिंदगी में सुख-शांति खोती जा रही है। भोग विलास को ही जीवन का सच समझने वाले लोगों की भगवान के प्रति आस्था घटती जा रही हैं इसी का नतीजा है कि सारी सुख -सुविधा होते हुए भी सुकून नहीं है। जो जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है। ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार करते हुए प्रभु के चरणों में मन रमाने का आनंद ही अलग है। पत्रकारिता में व्यावसायिकता के बढ़ते दबाव से न जाने कब मन उचटकर प्रभु श्रीराम व भक्तशिरोमणि हनुमान जी के चरणों में रमने लगा। आँखें बंद कर प्रभु के चरणों में मन रमाने से जो आनंद मिलता है, वह अकथनीय व अकल्पनीय है। आध्यात्मिक पत्रिका ’हनुमत कृपा’ के प्रकाशन का संकल्प भी इसी आनंद का प्रतिफ़ल है। आज के कम्प्यूटर युग में पत्र-पत्रिका निकालना चुनौतीपूर्ण कार्य है, इस सच्चाई से वाकिफ होने के बावजूद हिम्मत जुटा रहा हूं। देश-दुनिया में रह रहे लाखों सच्चे हनुमान भक्त हमारी ताकत हैं जो इस संकल्प को आगे बढ़ाने में मेरी मदद करेंगे। हिन्दू धर्म में आस्था रखने व ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार करने भक्तजनों के घर ऐसी आध्यात्मिक पत्रिका पहुंचाने की इच्छा है जो खुद तो पढ़े ही, बच्चों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित करें। प्रभु कार्य को व्यवसाय से दूर रखना चाहिए इसीलिए पत्रिका निःशुल्क रखी गयी है।


           पत्रिका का नियमित प्रकाशन होता रहे इसके लिए भक्तजनों से सहयोग की अपेक्षा है। कोशिश है कि पत्रिका में हर आयु वर्ग के लोगों के लिए कुछ न कुछ पठनीय जरूर हो। देशभर में प्रभु के कार्यों की कमी नहीं है। हजारों भक्त ईश्वर की भक्ति में लीन होकर बड़े बड़े आयोजन करते हैं। आध्यात्मिक व धार्मिक पत्रिकाओं की भी कमी नहीं है, उसी भावना के प्रति भक्तों को जागृत करने का मेरी ओर से यह गिलहरी प्रयास है। मेरे इस पावन प्रयास को साधुजन कितना स्वीकार करेंगे, यह तो वही जानें लेकिन मेरी हर संभव कोशिश है कि कहीं कोई कमी न रह जाये। इसके बावजूद पत्रिका में जो त्रुटियां रह गयीं हैं उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं। आपको हनुमत कृपा का जनवरी अंक कैसा लगा, जरूर बताएं, अमूल्य सुझाव भी दें ताकि पत्रिका को और पठनीय बनाया जा सके।


जय श्रीराम । जय हनुमान ।