श्री माँ की कृपादृष्टि ने नवजीवन दे दिया


श्री माँ की कृपादृष्टि ने नवजीवन दे दिया


दिसम्बर 1989। अभी कुछ ही वक्त तो हुआ था मेरी शादी को। कितने धूमधाम से मेरे माता पिता और रिश्तेदारों ने सारी रस्में अति उत्साह से निभाई थी। घर की लाड़ली विदा होकर नाज़ों से ससुराल आ गई। बीतते वक्त के साथ जाने कैसे सब कुछ बदल गया। ससुराल पक्ष और रिश्तेंदारों के ताने, रोकटोक के दुखदाई व्यवहार से मैं क्षुब्ध हो चुकी थी। संकोची स्वभाव था कुछ कह न सकी। वक्त बीतता रहा। मैं एक स्वस्थ, सुन्दर सी पु़त्री की मां बन चुकी थी। पर परिस्थितियां अब भी उतनी ही कटु और विपरीत थी। यह छोटी बड़की बातें मेरे गहरे विषाद का कारण बन गईं। दुःख इस तरह गहराया कि मुझे दौरे आने लगे। अवसाद घेरने लगा और मैं मायके पक्ष के सामने भी चुपचाप ही रही। शारीरिक बीमारियां, अकेलापन अवसाद को गहराता जा रहा था। दवाओं की वजह से, जीवन सामान्य जीने की कोशिश में वक्त गुजरता रहा। घर में फिर नन्हें मेहमान के आने की हलचल मेरे जीवन में नव तरंगों की तरह समा गई। मैं मां बनने वाली थी। डॉक्टर का कहना था कि इस मानसिक, शारीरिक स्थिति और दवाओं के सेवन के साथ बच्चे को जन्म देना रिस्क लेने जैसा है। पर मुझे अपनी आराध्य शक्ति श्री भक्ति मां की शक्ति पर भरोसा था। सदा की भांति इस बार भी मैंने श्री भक्ति मां की ध्यान करते हुए स्वस्थ बच्चे की आकांक्षा और भविष्य उन्ही के चरणों में रख दिया। वक्त बीतता रहा और निश्चित समय पर मैंने एक स्वस्थ बालक को जन्म दिया। मैं इस चमत्कारिक सुखद अनुभूति पर गद्गद् थी और डॉक्टर आश्चर्य चकित थे। मैं पूर्ण रूप से श्री भक्ति मां के चमत्कारिक आशीर्वाद को प्रत्यक्ष रूप से महसूस कर रही थी। श्री मां के आशीर्वाद से बच्चे भी कुछ बडे़ हो गये थे। घरेलू माहौल पूर्ववत् था। स्वास्थ्य गिरने लगा। दौरे अभी भी आते थे। डॉक्टर को दिखाया तो पता चला मेरी दोनों किडनियां खराब हो रही हैं। हम पति-पत्नी क्षुब्ध और दुःखी थे। घर परिवार और बच्चों के साथ इतना पैसे अलग से कैसे आता कि इलाज करवा पाते। मेडिकल स्टोर की दवाआें से ही इलाज चलता रहा। कोई अपनी मुफ्त की राय दे, इससे पहले हमने लोगों से मिलना जुलना कम कर दिया। हां दो बार अस्पताल में डायलिसिस करवाई जो कि बहुत मंहगी थी। तंगी में बीमारी कुछ ज्यादा ही खलती है पर मजबूरी में कोई क्या कर सकता है? दिल्ली शहर की लुभावन भी मरीचिका जैसी ही है। जितना ही कर लो खर्चें पूरे नहीं होते। फिर उस दिन मुझ पर जैसे वज्रपात सा हो गया जब अचानक मस्तिष्क में हुई कौंध के साथ हाथ पैरों की शिथिलता को महसूस किया। मैं क्षुब्ध और बेजान हो चुकी थी। मेरे हाथ पैरों में लकवा पड़ चुका था। शरीर नहीं सामान की गठरी सी बन चुकी थी मैं। हाथ पैरों का संचालन मेरे वश में नही था। शारीरिक मानसिक आर्थिक दुःखों की चरम सीमा मेरे सब्र के बांध को तोड़ने लगी थी।



 मेरी मां जो पिछले 35 वर्षों से नौकुचियाताल की शक्ति स्वरूपा भक्ति मां की परम आराध्या हैं उनके कहने पर मैं दिल्ली स्थित ईश भइया के आवास पर गई। पता चला मां का आगमन वहां पर हुआ है। मुझे सामान की तरह किसी तरह सहारे से कार में बिठाया और मां के चरणों पर अपनी करूणा पुकार व्यक्त करने के आशय से लाया गया। आवास पर आते ही पता चला कि श्री मां वहां नहीं हैं। वे किसी वैद्य के पास गई हैं। उपस्थित भक्तजन भी स्वयं इसका कारण नहीं जानते थे। मेरा मन निराश, दुःख भरी नकारात्मकता के साथ अंधेरों से घिरा हुआ था। फिर श्री मां का आगमन हुआ मुझे देखा दृढ़ संकल्प के साथ बोली इसे दरियागंज स्थित वैद्य कविराज ओमप्रकाश के पास अभी तुरंत ले जाओ बिल्कुल देर मत करो। हम लोग मां के आशीर्वाद पर पूर्णतया निर्भर थे, और कहीं भी जाना नहीं चाहते थे। मां ने जिद कर पुनः आदेश दिया तो टाल न सके। फिर सबने सहारे से मुझे किसी तरह कार में पहुंचाया और हम चल पडे़। मेरी आंखें शून्य में थीं, आंसुओं के बीच मैं अपने जीवन नियति को तय नहीं कर पा रही थी। बच्चों, पति की चिंता मेरा मन कचोट रही थी। 
 वैद्य जी की जांच परख के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि तीन महीने तक एक बूटी का अर्क पीना होगा। सुधार हो सकता है। हम उम्मीद लिये आ गये। मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना कि इस आर्थिक तंगी में बूटी के अर्क से काश फायदा हो जाये।
 इलाज शुरू हुआ। तीन महीनों तक मुझे वही अर्क पिलाया गया। कोई बाहरी इलाज नहीं चल रहा था। धीरे-धीरे मैं ठीक होने लगी। हाथ पैरों में स्पदंन और संचार होने लगा। उठने बैठने लगी थी। कमजोरी बहुत थी पर फिर भी अपने काम स्वयं कर सकती थी। पति के साथ वैद्य जी से मिलने जाना था, पर अभी शारीरिक अक्षमता की वजह से हिम्मत नहीं पड़ रही थी। इसी बीच हम श्री भक्ति मां से मिलने गये। श्री मां सरिता गुप्ता के घर दिल्ली पधारी थी। उन्होंने पूछा, ''वैद्य जी से मिलने गये या नहीं?'' हमने अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी। उन्होंने अन्दर से एक मिठाई का डब्बा लाकर कहा, जाओ अभी मिलकर आओ। उनका आदेश कैसे टाल सकते थे? उसी  वक्त सीधे दरियागंज श्री कविराज ओमप्रकाश वैद्य जी के पास मिलने चल दिये। उनके साथ कुछ देर तक कृतज्ञता भरी बातों के साथ अपने नवजीवन की चर्चा करती रही। 
  कुछ समय पश्चात् हम वापस लौट आये। मां के आशीर्वाद स्वरूप मुझे नया जीवन मिला था। इसे पूर्णतया भक्ति मां के चरणों में ही समर्पित कर देना चाहती हूँ। समय के साथ मेरी शारीरिक स्थिति में भी सुधार होता रहा। मैंने अपने हृदय से आभार व्यक्त करने के लिए वैद्य जी को फोन मिलाया। उस ओर से जवाब सुन कर मैं सन्न रह गई। वैद्य जी हमेशा के लिये संसार से विदा हो चुके थे। मेरी आंखों के सामने सारे घटना क्रम चित्रवत घूमते रहे। मैं इसे श्री मां की परम कृपा का दृष्टांत समझ कर नतमस्तक हो गयी। आज भी मैं इसे परम श्रद्धेय भक्ति मां का चमत्कारिक खेल ही समझती हूँ कि मुझे शारीरिक रूप से पूर्णतया स्वस्थ करने के लिए ही उन्होंने यह प्रयोजन किया था।
 हे भक्ति मां मेरे जीवन की हर श्वांस आपको कोटि कोटि कृतज्ञता प्रकट करती है। मेरे घर परिवार पर आपकी कृपा दृष्टि सदैव ही ऐसी रही हैं जैसे मां अपने बच्चों पर रखती है। आपको कोटि कोटि प्रणाम श्री भक्ति मां। 


श्रीमती गीता अग्रवाल 
दिल्ली