ब्रज समुद्र मथुरा कमल वृंदावन मकरंद


ब्रज समुद्र मथुरा कमल वृंदावन मकरंद


        ब्रज' शब्द गमन के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। गो-चारण कराने वाले गोप सदैव संचरण करते रहते थे। यमुना के प्रवाह से निर्मित गहरे सरोवर और पुलिनों में विहार करने वाले गोपाल अपने सखा समुदाय के साथ एवं गायों के झुण्डां के साथ विचरण करते थे। इसलिए यह गो-चारण भूमि 'ब्रज' नाम से अभिमण्डित हुई। वर्षाकाल में पूरा 'ब्रज' ही समुद्र जैसा बन जाता था। केवल मथुरा कमल की तरह दिखायी देती थी तथा वृंदावन की स्थिति मकरंद-सी सर्वश्रेष्ठ परागमयी अवस्था तुल्य विद्यमान दिखायी देती थी। वास्तव में यह कथन काव्यात्मक दृष्टि से भी वृंदावन को महत्वपूर्ण एवं महिमामण्डित करने के लिए एक सुंदर रूपक है। वृंदावन शरदपूर्णिमा के दिन ब्रजसमुद्र के खिले हुए कमल मथुरा का सारगर्भित एवं बहुत आकर्षक पराग बन जाता है। इसी परागमयी चेतना को रासलीलानायक मनोहर श्रीकृष्ण और गोपीवृन्द मिलकर बन को भी वृन्दावन बना देते है। तुलसी की महक भी सम्मोहित करने वाली होती है वह भी सहज मंजरी भाव से वृंदा बनकर स्वनाम धन्य हो जाती है। निकुंज बन सघनता के साथ प्रकाशपुंज शारदीय चन्द्रिका से दैदीप्यमान हो उठता है; जब मुरली का स्वर अनुगुंजित होता है, तब प्राण-प्राण की धड़कन रासलीला का सू़त्रपात करती है।



''शरद निशि निशीथे चांद की रोशनाई
सघन बन निकुंजे कान्ह वंशी बजाई।।''
        शरदकालीन रात्रि की पूर्णिमा को अर्द्धनिशा में पूर्णचन्द्र की ज्योत्स्ना सघन निकुंज वन वृंदावन की वन स्थिति को शुभ्रावरण से घवल बना देती है, तब कृष्ण की वंशी बजती है और उसकी तान-तरंग में बंधी गोप बालाएँ इस तरह परिमण्डल में आनंदित हो जाती है कि गोपी-गोपी के मध्य कृष्ण और कृष्ण-कृष्ण के मध्य गोपी रास लीला की अद्भुत एवं अपूर्व श्री का संवर्धन कर देते हैं।
अंगना मंगना मन्तरे माधवम्।
माधवं माधवं चान्तरे अंगना।।
        वृंदावन के तृण गुल्म वृक्ष वल्लरी आदिक रास रस में निमग्न होकर हहर उठते है। कण-कण सरावोर हो जाता है, ऐसी अवस्था में ज्ञानियों का ज्ञान विलुप्त हो जाता है। मानियों का मान धरा का धरा रह जाता है। सरल हृदय साधुजन गोपी भाव से भावित होकर वृन्दावन की गली नहीं छोड़ना चाहते।
        वस्तुतः भोगों से वैराग्य हुए बिना यथार्थ भगवत्प्रेम का सीधा विकास नहीं होता। जब तक मनोभूमि में विषयानुराग का गन्दा कीचड़ भरा हुआ होता है, तब तक उसमें बोया हुआ प्रेम का बीज उगता नहीं। उगना तो दूर, प्रेम का यथार्थ बीज वहाँ पहुँचता ही नहीं। चित्त की भूमि जब वैराग्य के द्वारा शुद्ध हो जाती है, तभी उसमें भगवत्प्रेम का बीज बोया जा सकता है। परन्तु इस वैराग्य का उदय भी अन्तःकरण की शुद्धि की अपेक्षा रखता है और वह होती है रास लीला के रस में डूब जाने से। रासलीला के रस में डूबकर वृन्दावन के रसिक सन्तों को भगवतप्रेम की झांकी हो जाती है, तब जगत के सभी सुख नीरस नाचीज और हेय लगने लगते हैं। भक्तवर नागरीदास (किशन सिंह किशनगढ़ राजस्थान के भगवदभक्त महाराज) ने भगवतप्रेम में डूबी गोपियों की जरा-सी झाँकी होने के बाद अपने पूर्व जीवन के लिए जो पश्चाताप किया और एक पद गाया उसमें वृंदावन के प्रति कितना अटूट प्रेम प्रकट हुआ है; देखने योग्य है-



किते दिन बिनु वृंदावन खोये।
यो हीं वृथा गये ते अबलौं राजस-रंग समोये।।
छाड़ि पुलिन फूलनि की सैया, मूल-सरनि सिर सोये
भीजे रसिक अनन्य न दरसे, विमुखनि के मुख जोये
हरि बिहार की ठौर रहे नहि, अति अभाग्य बल बोये।
कलह सराय बसाय भट्यारी माया राँड बिगोये।।
इकरस ह्याँ के सुख तजिके ह्नाँ कबौं हसें कबों रोये।
कियो न अपनो काज पराये भार सीस पर ढोये।।
पायो नहि आनंद लेस मैं सबै देस टकटोये।।
नागरिदास बसै कुंजन में, जब सब विधि सुख भोये।।
 यह है राजा के आनंद का वृंदावनी मकरंदी स्वरूप। अनेक भक्त यहाँ वृंदावन में वास करके भोगों के माया जाल से छूटने पर रासलीला नायक श्री कृष्ण को ही उलाहना देते हैं, 
वो छोरा नंद कौ बैरागी बनाइ गयौ री। 
ऐसो रास रच्यौ वृंदावन सुधि-बुधि सबइ भुलाइ गयौ री।। 
 वृंदावनी रास लीला यही सिखाती है कि भोगों में सुख नहीं है, सुख एक मात्र भगवान में ही। जगत के भोगां से सुख होगा, यह भ्रान्त धारण है, सुख होगा भगवान से। सेवा भगवान की करनी है, भोगां की नहीं। भोगों से भगवान को रिझाना है, भगवान से भोगों को पाना नहीं। यही रासलीला और मकरंदी वृंदावन का रहस्य है।
       वृंदावन की गली-गली में मुक्त होने की कामना लिए विरक्त जन घूमते फिरते हैं, किन्तु बिना गोपाल के रीझे उनकी मुक्ति सुलभ नहीं हो सकती। बाबा नीब करौरी महाराज जैसे विरक्त गृही संत पर गोपाल जी की जब अहैतुकी कृपा हुई, तो वह वृंदावन वास को और निर्वाण प्राप्ति को महत्व देते रहे, क्यों। वह इसलिए कि श्री कृष्ण के द्वारिका चलते समय मुक्ति ने श्री चरण पकड़ लिए और वह बोली मेरे रहने का वह स्थान बता दो जहां रहकर मुक्त हो सकूँ। प्रस्तुत संवाद को निम्नांकित दोहां में देखा जा सकता है-
वृंदावन की गैल में मुक्ति पड़ी बिलखाय।
मुक्ति कहै गोपाल सों मेरी मुक्ति कराय।।
पड़ी रहो जा गैल में साधु संत चलि जांय।
ब्रंजरज उड़ि मस्तक परै मुक्ति मुक्त ह्नै जाय।।
 वस्तुतः वृंदावनी संत महात्माओं के प्रति भगवान श्री कृष्ण की असाधारण महिमा मण्डित अनुरक्ति ही वृंदावन को भक्ति मुक्ति के लिए शीर्षस्थ बनाती है। इसलिए यह पूज्य स्थान है, लीला धाम है और रस स्वरूप है कहा गया है।
वृंदावन सो वन नी, नंदगाम सो गाम।
वंशीवट सो वट नही, राम कृष्ण सो नाम।।
 साधु सन्तों के कारण वृंदावन का अत्यधिक महत्व है और श्री कृष्ण लीला के कारण नंदगाँव गोकुल का महत्व तथा गोचारण लीला के कारण वंशीवट का महत्व है। निर्बल के बलराम तथा जीव, जीव के जीवनाधार कृष्ण का नाम ही भक्तों का संबल है। भक्तिमार्ग में लीलामय होकर जो साधक आराधना करते हैं वहीं ब्रजरस के सच्चे पारखी होते हैं। सच्चिदानंद परमब्रह्म परमात्मा उनके पीछे चलते हैं। 
 चलायमान एवं गतिशील होने के कारण यह भवसागर ही ब्रज रूप है तथा थोड़े समय तक स्थिर रहने के कारण यह जीवन ही मथुरा स्वरूप है और सत्कर्मों की सुवास ही वृंदावन है, जो मकरंद स्वरूप है। वस्तुतः जीवन जगत और ईश्वर की त्रिपुटी का यही विराट खेल है। 


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आचार्य डॉ. रामकृष्ण शर्मा, डी. लिट
सम्बद्ध हिन्दी विभाग, 
डॉ. बी.आर. अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा 
निवासः 257, तेजाब मिल, कानपुर