लखनऊ से बाबा का बहुत पुराना नाता


           परम आदरणीय बाबा नीब करोरी महाराज एवं मेरे पिताजी प्रो. डा. दीन दयाल गुप्त युवावस्था से ही एक-दूसरे के बहुत निकट थे। बाबाजी मेरे पिताजी के अलीगढ़ स्थित पैतृक आवास पर रहा करते थे और स्वयं ही भोजन बनाया करते थे।
           मेरे पिताजी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय (प्रयागराज) से हिन्दी भाषा और साहित्य में एम.ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक पद पर उनकी सन् 1928 में नियुक्ति हुई और वे मॉडल हाउस में रहने लगे। यही से बाबाजी का विशेष अनुराग और मित्रता के कारण लखनऊ आना-जाना शुरू हो गया। बाबा जी को लखनऊ बहुत भाया तथा यहां के लोग, पिताजी के सहकर्मी व छात्र छात्राएं बाबाजी बहुत मानने लगे। बाबाजी सबकी बाते सुनते और समस्या का हल बता दिया करते थे। धीरे-धीरे उनकी भगवत भक्ति व तपस्या रंग लाई और हनुमानजी की विशेष कृपा प्राप्त हो गई जो आगे चल कर सिद्धी कहलाई। बाबा के इतने भक्त और आगन्तुक हो गए कि कभी-कभी मकान छोटा पड़ने लगा।
           मेरी माताजी साबरमती आश्रम गुजरात की कान्ताबेन (श्रीमती चन्द्रकान्ता) सन् 1930- 32 में इलाहाबाद से गिरफ्तार होकर अंग्रेज शासकों द्वारा लखनऊ कारागार भेजी गई थी और उनके संर्घषपूर्ण स्वाभिमानी तथा अति सुंदर होने के कारण बहुचर्चित हो गई थी।



           बनारस के राजा ज्वाला प्रसाद एवं उनके पुत्र धर्मवीर (प्ब्ै) जो मेरी माताजी को बहुत मानते थे। वे लोग पिताजी के भी निकट थे। डा. गुप्त एवं धर्मवीर क्योर हॉस्टल इलाहाबाद में छात्रावास इन्मेट (क्वतउपजवतल प्दउंजम) थे और चाहते थे कि मेरी माताजी का शुभ-विवाह किसी योग्य, धार्मिक व अंग्रजों से लोहा लेने वाले व्यक्ति से हो जाए। धर्मवीर उनके पिताजी एवं बाबाजी के आशीर्वाद से मई 1936 में भक्ति भवन, सिगरा वाराणसी में विवाह सम्पन्न हुआ। महात्मा गांधी के पी.ए. महादेव देसाई तथा प्रभावती (जे.पी. की पत्नी) ने माताजी की ओर से बारात की अगुवाई की। अंतिम समय में जे.पी. और लाल बहादुर शास्त्री भी विवाह में हाथ बंटाने तथा बारात में अलीगढ़ और इलाहाबाद (प्रयागराज) से आई विभूतियों की सेवा में संलग्न थे। विवाहोपंरात माताजी कुछ समय अलीगढ़ और बनारस में रह कर पिताजी के पास लखनऊ आ गई। ये बाबाजी की ही कृपा थी कि 41 कैसरबाग लखनऊ का बहुत बड़ा मकान मेरे पिताजी ने किराये पर ले लिया जो बेगम हजरतमहल और रानी लक्ष्मीबाई मार्ग से लगा हुआ था। बाबाजी को यह घर अच्छा लगता था।


           यहां बाबाजी के भक्तों का तांता लगा रहता था। एक बार लस्सी का गिलास बाबा जी के लिए बैठक में लाया गया। बाबाजी को कोई काम याद आ गया और उठ कर जाने लगे माताजी बताती थी कि वे जा रहे थे और गिलास खाली हो रहा था दूर जाकर बोले मैं लौटकर भोजन करूंगा।
           एक बार लखनऊ कारागार के जेलर को लेकर एक सज्जन बाबाजी से मिलने आये। जेलर तो घर में चले गए किन्तु वह सज्जन बोले जल्दी मिलकर आइये, मैं बाबा के धर्म-कर्म में विश्वास नहीं रखता। अंदर बाबाजी ने जेलर से कहा तुम्हारे साथ जो मित्र आया है गोरा-नाटा सिर पर कम बालां वाला वह एक दिन मेरा भक्त बनेगा और खूब पूजा पाठ भी करेगा। यह सज्जन मेरे अंकल स्व. सूर्यनारायण मेहरोत्रा थे जो बाद में हनुमान सेतु मंदिर के प्रथम कर्ता धर्ता एवं ट्रस्टी बने। मेरे सहपाठी रमेश एवं स्व. गोपाल (दोनों मेरे मित्र) के पिता तथा श्याम कपूर भी हनुमान सेतु मंदिर के ट्रस्टी एवं सचिव बने जो मेहरोत्रा के भान्जे थे।
           एक अन्य संस्मरण गोपाल मेहरोत्रा जो कैंची आश्रम/हनुमान मंदिर कैंची जिला नैनीताल के ट्रस्टी थे। हाई स्कूल सन् 1963 के बाद गोपाल ने आगे पढ़ने से मना कर दिया। तब तक बाबाजी लाटूश रोड स्थित उनके आवास पर ही ठहरने लगे थे। बाबाजी ने आशीर्वाद दिया और गोपाल की तदर्थ नियुक्ति भारतीय स्टेट बैंक लखनऊ में हो गयी। पदोन्नति के बाद वह शाखा प्रबंधक के पद से सेवानिवृत हुए। वे अन्नय भक्त और मां विध्यवासिनी के उपासक थे। बाबाजी फूलमाला फेंक कर हम सबको आशीर्वाद दिया करते थे। सन् 1966 में बाबाजी के हाथ लगाने से ही आज का हनुमान सेतु मंदिर आदिगंगा गोमती नदी के किनारे ठहर पाया।



           एक बार पिताजी ने बाबा जी से कहा कि आपको हनुमान जी की सिद्धी बहुत उत्तम है किन्तु आप स्वामी की शरण में जाएं। मैं भगवान वासुदेव कृष्ण का भक्त एवं उपासक हूँ और मेरी धर्मपत्नी चन्द्रकान्ता भगवान श्री राम व शिवजी की उपासक हैं।
बाबाजी भगवान श्री कृष्ण बांके बिहारी जी के अनन्य सेवक उपासक हो गए और कैंची आश्रम नैनीताल में रहने लगे। इधर पिताजी को 1967 में ब्रेन ट्यूमर हो गया। आपरेशन के लिए उन्हें एम्स दिल्ली ले जाया जा रहा था। रमेश मेहरोत्रा ने कहा कि केशव! बाबाजी से पिताजी को आशीर्वाद दिलवा दिया जाए। रमेश व सूर्यनारायण कार में बाबाजी को लेकर मेरे अबके आवास 517 न्यू हैदराबाद ले आए। पिताजी वैलूर जाने और सत्य साई बाबा पुर्तापार्थी से आशीर्वाद लेने से मना कर चुके थे। वह मंत्र जपा करते थे या कहते थे रघुबीर भरोसा भायी। बाबाजी और पिताजी मिलकर बहुत प्रसन्न हुए लेकिन पिताजी मुस्कुराते रहे एक बार स्वयं भी कुछ नहीं मांगा। बाबाजी आशीर्वाद दे कर चले गए।
           पिताजी का आपरेशन ठीक हो गया। वह 1968 के नई दिल्ली गये और फरवरी 1969 में लखनऊ वापस आ गये। लेकिन पुनः कष्ट और वेदना बड़ी तो एम्स दिल्ली जाना पड़ा। इसके बाद बड़ी बहिन प्रियमवदा के दिल्ली स्थित घर पर पिताजी आ गए। कष्ट के बावजूद वह हिन्दी जगत की सेवा भक्ति भाव से करते रहे और श्रीकृष्णजन्माष्टमी रोहिणी नक्षत्र के दिन दिसम्बर 1969 को उनका देहावसान हो गया। कृष्ण काव्य के विद्वान कृष्ण भक्त गोलोकधाम पहुंच गए। उधर बाबा जी ने घोषणा कर दी कि वह कैंची आश्रम त्याग कर बांके बिहारी जी वृंदावन मथुरा जायेंगे। देह त्याग के एक दिन पूर्व कैंची आश्रम से निकले ट्रेन पकडी और बांके बिहारी जी के मंदिर पर देह त्याग कर गोलोकगमन कर गए। ये दोनों महान आत्माएं यदि सानिध्य मोक्ष की अधिकारी थीं उनका गोलोकधाम में मिलन अवश्य हुआ होगा। 


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केशव कृष्ण, लखनऊ