मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा

मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा 



किसी भी विशिष्ट कार्य का निष्पादन पूर्ण करने के लिये उपरोक्त शुभ कार्यों को करना उत्तम मान्य है। ध्यान दें यह है श्री रामदूत का प्रस्थान - सागर तट पर एक ‘सुन्दर पर्वत’ पर हनुमानजी चढ़ गये - पर्वत अपने आकार प्रकार में एक से ही होते या दिखते हैं कि यहाँ तुलसीजी ने वर्णन किया है कि एक - ‘भूधर सुन्दर’ - कारण कि नाम तो भले ना लिखा हो तुलसी जी ने ‘‘बाल्मीक रामायण’’ व ‘‘अध्यात्म रामायण’’ में इस पर्वत का नाम महेन्द्र’’ महेन्द्र द्रिशिरो गत्वा व भूवादभुत दर्शन।’’ और स्वयं को और भी प्रेरक बनाने को प्रभु नाम का बारम्बार स्मरण करने लगे हनुमानजी । स्वयं अत्यन्त विशालाकार हैं हनुमानजी ! यह स्मरण रखें - 
‘‘मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा ।।’’ 
जिस प्रकार भगवान राम का बाण अमोघ है - वायु वेग से अपने गन्तव्य तक जाने वाला - उसी प्रकार वह भी वायु वेग से रावण पालित लंकापुरी को जा रहे हैं - बाल्मीकि वर्णन करते हैं कि -
‘‘यथा राघवनिर्मुक्तः शरः श्वसर्नावक्रमः गच्छेत तद्वह गमिष्यामि लंका रावण पालिताम् ।।’’ 
(बा0 रा0 5/1/40)
तो ‘सुन्दर’ पर्वत (महेन्द्र पर्वत) पर चढ़ते हैं तथा प्रभु के ‘अमोघ’ बाण के समान चले श्री हनुमानजी ! ‘अमोघ’ का अर्थ होता है - ना चूकने वाला - अचूक - अर्थात यात्रा का प्रारम्भ अमोघ बाण की भाँति हुआ है - रामायण में अनेक प्रकार के बाणों का वर्णन आया है। आग्नेय-बाण, वरुण-बाण, वायव्य-बाण, ब्रह्मास्त्र आदि - तो सर्वविदित है ही ‘मानस’ में दो अन्य विलक्षण बाणों का उल्लेख हुआ है -एक बाण तो यही है ‘अमोघ बाण’ दूसरा है - बिना फल वाला बाण - इन्हीं का संधान करने भगवान राम ने विश्वामित्र जी के यज्ञ में विघ्न डालने वाले ‘मारिच’ को पस्त किया था - जो बाद में मायामृग बन कर सीताहरण में निमित्त बना था - दूसरा बाण भरत जी ने - श्री हनुमानजी पर संधान किया था और पर्वत उसी बाण पर लटका रहा - श्री हनुमानजी धरती पर आ गये थे। अमोघ बाण की तीन विशेषतायें होती हैं - 
1. वायु वेग से प्रहार करना व उसी वेग से वापस भी आ जाना। 
2. अचूक निशाना - लक्ष्य पूर्ण करना और 
3. शत्रु पर प्राणघातक प्रहार।