जानेहिं नहिं मरमु सठ मोरा

 


जानेहिं नहिं मरमु सठ मोरा 



लंकिनी समझ गयी थी कि मेरे पुण्य बली हैं तभी मुझे शीघ्र ही स्मरण आ गया कि मैं अन्याय का साथ दे रही थी और हे रामदूत ! आपके दर्शन तो मेरा ही सौभाग्य है कि आपको देख धन्य हो रही हूँ। हाथ जोड़कर प्रणाम करती है लंकिनी हनुमानजी को कहती है कि हे तात स्वर्ग और मोक्ष के समस्त सुखों को भी यदि तराजू के एक पलड़े में रखा जाये तब भी वह उस सुख के बराबर नहीं हो सकता - जो आपके माध्यम से इस क्षण सत्संग से मिला है। मुष्ठिका प्रहार वस्तुतः लंकिनी को विस्मरण से जाग्रत में लाने की ही प्रक्रिया रही हनुमानजी की।
मनुष्य को जब सम्मान मिलता है तब उसे लगता है कि उसे अपने पुण्य सत्कर्म का फल मिला है और जब अपमान होता है तो उसे अपने कार्यक्रम के फल का बोध होता है किन्तु यहाँ तो उल्टा ही दृश्य है कि लंकिनी मार खाकर मुष्ठिका प्रहार से अपमानित होकर भी कह रही है कि ‘‘तात मोर अति पुन्य बहूता।’’ तो अर्थ यही कि जिस सम्मान के कारण व्यक्ति ईश्वर से विमुख हो जाये भूल जाये वह पाप का ही फल है और जिस अपमान के कारण ईश्वर का स्मरण हो जाये वही तो पुण्य का फल है तभी तो लंकिनी के वचन है - ‘‘देखऊँ नयन राम करि दूता।।’’ एक प्रहार से ही लंकिनी का हृदय परिवर्तित हो गया सच्चा सत्संग ही वही है कि जो आपकी हमारी सोच को उल्टी जा रही विचारधारा को ही बदल दे - रावण को स्वामी मानने की गहरे पैठ चुकी विचारधारा तो बजरंगबली को ही चोर मानेगी। जिसने जगद्जननी माता सीता का हरण कर लिया है उस रावण का तो स्वामी और ‘‘राम के दूत श्री हनुमानजी’’ को चोर मानने वाले को आप क्या कहेंगे। यही ना कि ‘कुबुद्धि’- - 
‘‘जानेहिं नहिं मरमु सठ मोरा । 
मोर अहार जहाँ लगि चोरा ।।’’